श्रीनारायणीयम्
अष्टाविंशतितमदशकम्
यद्यपि शंकर-ब्रह्मा आदि समस्त देवता सद्गुणशाली हैं, तथापि वे कुछ न कुछ दोषलेश से युक्त अवश्य हैं- यों विचार कर सदैव सर्व रमणीय आपके गले में लक्ष्मी ने वह दिव्यमाला डाल दी।।7।।
तब आपने शीघ्र ही उन अनन्यभावा जगज्जननी लक्ष्मी को अपने वक्षःस्थल पर धारण कर लिया। आपके वक्षःस्थल पर सुशोभित होती हुई लक्ष्मी के कृपा-कटाक्ष की शोभा-वृष्टि से जगत् परिपुष्ट-सकल संपत्तियों से समृद्ध हो गया।।8।।
उसी समय परम मनोहर विभ्रम-विलासशालिनी वारुणी-देवी सबको उन्मत्त बनाती हुई निकलीं। आपने अज्ञान की हेतुभूता उन वारुणी को अत्यन्त सम्मान के साथ महासुरों को दे दिया।।9।।
तत्पश्चात् आप धन्वन्तरि रूप में समुद्र से प्रकट हुए। आपका स्वरूप सजल जलधर के सदृश परम मनोहर था और आप अपने दोनों हाथों में अमृत-कलश किए हुए थे। मारुतालयेश! मेरी सारी पीड़ाओं को हर लीजिए।।10।। ।।इति अमृतमथने कालकूटोत्पत्ति वर्णनं लक्ष्मीस्वयंवर वर्णनम् अमृतोत्पत्ति वर्णनं च अष्टाविंशतितम दशकं समाप्तम्।। |
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