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श्रीकृष्ण लीला का चिन्तन
70. कालिय द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति और श्रीकृष्ण की उसे ह्नद छोड़कर समुद्र में चले जाने की आज्ञा तथा गरुड़ के भय से मुक्ति दान; कालिय एवं उसकी पत्नियों द्वारा श्रीकृष्ण की अर्चना तथा उनसे विदा लेकर रमणक-द्वीप के लिये प्रस्तान
नत मस्तक हुए कालिय ने व्रजेन्द्र नन्दन के इस आदेश को स्वीकार किया। किंतु उन नाग वधुओं की आँखें तो झर-झर कर बह चलीं। ‘हाय रे! शत-सहस्र जन्मों की अभिलाषा पूर्ण तो हुई, आराध्य देव श्रीकृष्णचन्द्र मिले अवश्य; पर उनकी लीला स्थली का अब हमें परित्याग कर देना है!’- इस दुस्सह ताप में ही नाग-रमणियों का हृदय द्रवित होकर बाहर की ओर प्रवाहित होने लगता है, सामने अवस्थित नीलसुन्दर के उस श्यामल छबि सिन्धु में ही विलीन होने की आशा से प्रसरित हो रहा है; क्योंकि श्रीकृष्णचन्द्र के प्रत्यक्ष दर्शन यह अनिर्वचनीय सुदुर्लभ सौभाग्य फिर प्राप्त हो, न हो! इधर इसी समय बाल्य लीला विहारी ने एक क्षण के लिये आकाश की ओर देखा। उस अभिनव मुग्धता की ओट से झाँकती हुई अनन्त ऐश्वर्य की छाया जिसने अभी-अभी कालिय को सागर लौट जाने का आदेश किया है- किंचित् और भी गाढ़ी हुई। अन्तरिक्ष के वे गन्धर्व, सिद्ध, देव, चारण आदि सचकित हो कर उन्हें देखने लगे। प्रतीत हुआ - मानो कालिय के मिस से व्रजराज नन्दन उन अन्तरिक्ष वासियों को, सम्पूर्ण जगत में विस्तारित कर देने के लिये, एक सुन्दर संदेश-दान करने जा रहे हों! और सचमुच ही उन महा महेश्वर ने अपनी असमोर्ध्व महिमा के एक तनिक से अंश की घोषणा स्वयं अपने श्रीमुख से कर ही दी। उनके वे दृग-सरोज अन्तरिक्ष से मुड़कर पुनः नागराज पर ही पीयूष की वर्षा करने लगे तथा मेघ गम्भीर स्वर में उन्होंने का-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (श्रीमद्भा. 10।16।61-62)
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