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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
भले ही कोई माता, पिता, गुरुजनों तथा वेद-शास्त्र की आज्ञाओं को न माने और उनसे अपने को स्वतन्त्र मान ले, परन्तु जन्म, जरा, व्याधि, दरिद्रता, विपत्ति, मृत्यु आदि के परतन्त्र तो प्राणिमात्र को होना ही पड़ता है। क्योंकि जब तक कुछ स्वतन्त्रता को त्यागकर, शास्त्रों एवं गुरुजनों के परतन्त्र होकर, कर्म, उपासना तथा ज्ञान द्वारा, मल विक्षेप आवरण को शरीर त्रय बन्धन किंवा जीव भाव से मुक्त होकर, निजी निर्विकार स्वरूप को न प्राप्त कर लें, तब तक पूर्ण स्वातन्त्र्य मिल सकता नहीं। विवेचन से स्पष्ट होता है कि सर्वोपाधि विनिर्मुक्त असंग अनन्त स्वप्रकाश प्रत्यगभिन्न सच्चिदानन्द भगवान का ही स्वरूप है। ऐसे ही प्राणीमात्र को यह भी रुचि होती है कि सब कुछ हमारे अधीन हो, और मैं स्वाधीन रहूँ, यहाँ तक कि माता, पिता, गुरुजनों के प्रति भी यही रुचि होती है कि ये सब हमारी प्रार्थना मान लिया करें, और सब तरह से मेरे अनुकूल रहें। यही स्थिति देवताओं के प्रति भी होती है। यह सभी भाव जीव भाव के रहते नहीं हो सकते, समस्त कल्पित पदार्थ कल्पना के अधिष्ठानभूत भगवान के ही परतन्त्र हो सकते हैं, इस तरह परमार्थतः पूर्ण अस्तित्व, पूर्ण बोध, पूर्ण आनन्द, पूर्ण स्वातन्त्र्य एवं पूर्ण नियामकत्व भगवान में ही होता है। जब आस्तिक-नास्तिक, सभी पूर्ण स्वातन्त्र्य, पूर्ण नियामकत्व, पूर्ण बोध, पूर्णानन्द, पूर्ण अबाध्यतया सत्ता के लिये व्यग्र, तथा इनकी प्राप्ति के लिये जी-जान से प्रयत्न करते हैं, तब कौन कह सकता है कि अज्ञानी किंवा नास्तिक जिसकी प्राप्ति के लिये व्यग्र हैं, वह तत्त्व भक्तों और ज्ञानियों के ध्येय ज्ञेय परमाराध्य परब्रह्म भगवान नहीं है, क्योंकि प्राणिमात्र किंवा तत्त्व मात्र के अन्तरात्मा भगवान ही हैं, फिर उनसे विमुख होकर निःसत्त्व, निःस्फूर्त्ति कौन होना चाहेगा? इसी आशय से श्रीवाल्मीकि की उक्ति है कि “लोके नहि स विद्येत यो न राममनुव्रतः” लोक में ऐसा कोई हुआ नहीं, जो राम का अनुगामी न हो। निजी सर्वस्व के बिना किसी को भी कैसी विश्रान्ति? अत: तरंग की जैसे समुद्रानुगामिता है, ठीक वैसे ही प्राणीमात्र की भगवदनुगामिता है, भेद यही है कि ज्ञानी अपने प्रियतम को जानकर प्रेम करता है, दूसरे उसी के लिये व्यग्र होते हुए भी उसे जानते नहीं। भागवत के द्वितीय स्कन्ध में भी विराट आदि भगवान के स्थूलरूप के ध्यान के अनन्तर, अनन्तकेटि ब्रह्माण्डनायक प्रभु की मधुर मंगलमयी मूर्त्ति का ध्यान बतलाया गया है। ध्यान से चित्त की पूर्ण एकाग्रता होने पर, भगवान के अनन्त अखण्ड स्वप्रकाश बोधस्वरूप का साक्षात्कार कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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