भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवत्कथामृत
हम उस आनन्दकन्द, नन्दनन्दन, गोपिकावल्लभ, पूर्णब्रह्म, मंगलमूर्ति भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के परमऋणी हैं, जो हमें सृजन कर हमारा पालन-पोषण कर रहे हैं। उनके मधुर मुखारविन्द, मनोहारी नेत्र, नासिका, अधर और मकराकृत कुण्डल सब-के-सब हमारे हृदयस्थल को पवित्र करने एवं प्रसन्नता देने वाले हैं। पर शोक के साथ कहना पड़ता है कि हम आज उस नटवर गोपाल को-अज्ञान सागर में अपने को डालकर-एकदम भूल गये हैं और उसकी मधुरमय लीलासुधा रसपान से अपने को दूर रखे हुए हैं। भावुकों का कहना है कि यदि सहस्रों शिर प्रदान कर देने पर भी उस महाप्रभु की लीला का वास्तविक ज्ञान हो जाय और उसका दर्शन हो, तो यह सौदा बहुत ही सस्ता है, इसे शीघ्र-से-शीघ्र खरीद लो। ऐसे अमूल्य सौदे को, जो हजारों शिर देने पर भी खरीद करने पर सस्ता पड़ता है, हम उपेक्षा की दृष्टि से देख रहे हैं। फिर, यदि हम सुख की अभिलाषा करें, तो क्या यह हमारी निरी धृष्टता नहीं है? भगवदीय-लीलासुधा का आस्वादन वास्तव में जिन्होंने किया है, वे धन्य हैं और धन्य वे भी हैं जो इस लीला-सुधा के आस्वादन की उत्कृष्ट अभिलाषा रखे हुए हैं और तत्प्राप्त्यर्थ सचेष्ट हैं। संसार के नाना प्रकार के कल्मषों को दूर करने का इससे बढ़कर दूसरा उपाय की क्या है? इसके लिये विशेष परिश्रम की भी आवश्यकता नहीं है। भगवत-लीला “श्रवणेनैव मंगलम्”, केवल श्रवणमात्र से मंगल देने वाली है, कल्याण साधक है, तीनों प्रकार के दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्तिदायक है। पर यह श्रवण, श्रद्धा और भक्ति के साथ होना चाहिये। यह नहीं कि एक कान से अमृतमय उपदेश सुना और दूसरे कान से निकाल दिया। अज्ञानजन्य मोह का सर्वथा परित्याग करके ही प्राणी इस लीला सुधा का मधुर पान कर सकता है। अज्ञानजन्य मोह से मन अस्थिर होता है। मन की अस्थिरता ही भय का कारण है और मन की अस्थिरता का कारण है सत्त्वगुण का अभाव। अतः ये दोनों लक्ष्यप्राप्ति में बाधक है। सत्त्वगुण की जिससे वृद्धि हो और रज, तम शान्त हों, वही प्रयत्न मनुष्य को करना चाहिये। फिर जहाँ, जिस दशा और जिस स्थान में हों, श्रीमानों द्वारा प्रसारित भगवदीय लीला-सुख का अनुभव हो सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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