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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
शिवलिंगोपासना-रहस्य
सर्वाधिष्ठान, सर्वप्रकाशक, परब्रह्म परमात्मा ही ‘‘शान्तं शिवं चतुर्थम्मन्यन्ते’’ इत्यादि श्रुतियों से शिवतत्त्व कहा गया है। वही सच्च्दिानन्द परमात्मा अपने आपको ही शिवशक्तिरूप में प्रकट करते हैं। वह परमार्थतः निर्गुण, निराकार होते हुए भी अपनी अचिन्त्य दिव्यलीलाशक्ति से सगुण, साकार, सच्चिदानन्दघनरूप में भी प्रकट होते हैं। वही शिव-शक्ति राधाकृष्ण, अर्द्धनारीश्वर आदि रूप में प्रकट होते हैं। सत्ता के बिना आनन्द नहीं और आनन्द के बिना सत्ता नहीं। ‘स्वप्रकाश सत्तारूप आनन्द’ ऐसा कहने से आनन्द की वैषयिक सुखरूपता का वारण होता है, सत्ता को आनन्दरूप कहने से उसकी जड़ता का वारण होता है। जैसे आनन्दसिन्धु मे माधुर्य उसका स्वरूप ही है, वैसे ही पार्वती-शिव का स्वरूप किंवा आत्मा ही है। माधुर्य के बिना आनन्द नहीं और आनन्द के बिना माधुर्य नहीं। दूसरी दृष्टि से -
समस्त प्राणियों में जितनी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, उन सबकी योनि अर्थात उत्पन्न करने वाली माता प्रकृति है और बीज देने वाला शिव (लिंग) पिता मैं हूँ। अर्थात मूल प्रकृति और परमात्मा की उन माता-पिता (योनि-लिंग) रूप में उन-उन मूर्तियों (वस्तुओं) का उत्पादन करते हैं। जैसे लोक में प्रजोत्पादन की कामना से प्राणी नारी में गर्भाधान करता है, वैसे ही ‘‘एकोऽहं बहुःस्यां, प्रजायेय’’ इत्यादि श्रुतियों के अनुसार एक ब्रह्मतत्त्व ही प्रजोत्पादन या बहुभवन की कामना से प्रकृति में गर्भाधान करता है। ‘‘सोऽकामयत’’ यह प्रजा की सिसृक्षारूप काम ही प्राथमिक आधिदैविक काम है। इसी काम द्वारा प्रकृति संसृष्ट होकर भगवान अनन्त ब्रह्माण्ड को उत्मन्न करते हैं। यह काम भी भगवान का ही अंश है- ‘‘कामस्तु वासुदेवांशः’’ (भगावान)। लोक में भी प्रेम, काम या इच्छा का मुख्य विषय आनन्द ही है। सुख में साक्षात कामना और उससे अन्य में सुख का साधन होने से इच्छा होती हे, इसीलिये आनन्द और तद्रूप आत्मा निरतिशय, निरुपाधिक परप्रेम का आस्पद है, अन्य वस्तुएँ सतिशय, सोपाधिक अपर प्रेम के आस्पद हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता
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