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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भगवच्छरणागति से ही गति
“शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते” इत्यादि शास्त्रवचनों में योगभ्रष्ट को चर्चा आती है। अर्जुन ने प्रश्न किया कि- अर्थात जो ब्रह्म के मार्ग में प्रतिष्ठित नहीं हो सका, योगसिद्धि बिना प्राप्त किये ही मर गया, उसकी क्या गति होती है? यहाँ यही अभिप्राय है कि जो लोग कर्म-संन्यास करके कर्ममार्ग को छोड़ चुके और ब्रह्मसाक्षात्कार-साधन श्रवणादि में लगे हुए हैं, वे मरकर छिन्न बादल के समान नष्ट होते हैं या किसी तरह उनकी भी सद्गति होती है? भगवान ने कहा- “प्रार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते।” पार्थ! इस लोक-परलोक कहीं भी उसका विनाश नहीं होता, “न हिं कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति।” हे तात! कल्याण के लिये प्रयत्न करने वाला कोई प्राणी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता। उनमें उच्च-कोटि के अधिकारी लोग तो जन्मान्तर में पवित्र अध्यात्मनिष्ठ योगियों के कुल में जन्म ग्रहण करते हैं और वहाँ पूर्वाभ्यासवशात् पुनः योगाभ्यास में लगकर शीघ्र ही सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। कोई-कोई पवित्र श्रीमानों के यहाँ जन्म ग्रहण कर धर्मानुष्ठान तथा सत्संगादि करके पुनः उच्चगति को प्राप्त होते हैं। सारांश यही है कि जो कर्मादि का सहारा छोड़कर योग या ज्ञान के अभ्यास में तल्लीन हो गये और पूर्ण सिद्धि या तत्त्वसाक्षात्कार से पहले ही मृत हो गये, वे भी नष्ट नहीं होते, किन्तु वे भी अच्छी ही गति को प्राप्त होते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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