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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत
श्रीमद्भागवत, दशम स्कन्ध, अध्याय 20 में वर्षा तथा शरत् का बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है। श्रीमद्वृन्दारण्य धाम में भी प्राणियों को उद्भूत करने वाली वर्षा ऋतु प्रकट हुई, गर्जन और दामिनी से युक्त सान्द्र नीलाम्बुद के द्वारा नभोमण्डल आच्छन्न हो गया। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि ज्योतियाँ भी स्पष्ट नहीं देख पड़तीं। यह स्थिति उस तरह की है जैसे निर्गुण ब्रह्मरूप जीव सत्त्व, रज, तम आदि गुणों से आच्छन्न हो जाता है और उसकी स्वरूपभूत ज्योति अनुभूत नहीं होती। किंवा निरभ्र ज्योतिर्मय आकाश गर्जन, विद्युत्, नीलाम्बुद आदि से आच्छन्न और अस्पष्ट ज्योति हो गया जैसे निष्प्रपंच ज्योतिर्मय ब्रह्म सत्त्व, रज, तम के प्रपंच से आवृत होकर अस्पष्ट ज्योति सा हो जाता है। किंवा आकाश मेघादि से आवृत होकर वैसे शोभित होने लगा, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण साकार श्रीकृष्ण रूप में शोभित होता है। चिक्कण, सजल, जलद, नीलाम्बुद के समान श्रीकृष्ण के अवयव व्यक्त हुए और विद्युत् के समान पीताम्बर तथा मन्दगर्जन से समान वेणुवाद। जैसे आकाश की सूर्यादि ज्योतियाँ स्पष्ट नहीं दीखतीं, वैसे ही श्रीकृष्ण का स्वप्रकाश, तेजोमय स्वरूप वस्त्र, भूषण एवं व्रजांगनाओं से आवृत होने के कारण स्पष्ट नहीं दिखलायी देता। सूर्य ने आठ महीने अपनी तिम्ग रश्मियों के द्वारा भूमि से खींचे हुए जल को यथोचित समय पर छोड़ना (देना) आरम्भ किया, जैसे राजा प्रजा से कर लेकर यथा समय उसे पुनः प्रदान करता है। जैसे कृपालु लोग तप्त प्राणियों को देखकर दयार्द्र हो उनके रक्षण, आप्यायन के लिये अपने जीवन तक का उत्सर्ग कर देते हैं, वैसे ही दामिनीयुक्त बड़े-बड़े मेघ अपने तड़िद्रूप नेत्रों से विश्व को तप्त देखकर वायु रूप दया से कम्पित होकर विश्व का आप्यायन करने के लिये जीवन (उदक) बरसने लगे। ग्रीष्म से तप्त और कृशा, दुर्बला पृथ्वी पर्जन्य की वर्षा से पुष्ट हो उठी, जैसे कामना से तपस्या करने वाले तपस्वी का शरीर काम-प्राप्ति से पुष्ट हो जाता है। सायंकाल में अन्धकार के कारण खद्योतों (जुगनुओं) का प्रकाश होने लगा, परन्तु चन्द्र, शुक्र आदि ग्रहों का प्रकाश नहीं, जैसे कलियुग में पाप के कारण पाखण्डों (वेदविरुद्ध आगमों) का विस्तार होता है, वेदों का नहीं। बादलों के निनाद को सुनकर प्रथम प्रसुप्त मण्डूकों ने बोलना आरम्भ कर दिया, जैसे नित्य ध्यान, जपादि नियम के पश्चात आचार्य के निनाद को सुनकर शिष्य लोग वेदाध्ययन करने लगते हैं। क्षुद्र नदियाँ कभी बढ़ने पर उत्पथ गामिनी होती हैं या शुष्क हो जाती हैं, सत्पथ गामिनी नहीं होतीं, जैसे इन्द्रिय परतन्त्र या निरंकुश प्राणी की देह, द्रव्य सम्पत्तियाँ या तो उच्छृख्ल अपात्र गामिनी होती हैं, अथवा नष्ट हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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