भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निराकार से साकार
कुछ लोगों का कहना है कि निर्गुण, निराकार, निर्विकार परब्रह्म परमात्मा साकार नहीं हो सकता। यद्यपि इस विषय पर समाजियों एवं सनातनियों के अनेक बार शास्त्रार्थं हो चुके हैं, उनके शास्त्रार्थों में युक्तियों की प्रधानता थी और वेद मन्त्रों से ईश्वर का साकार होना सिद्ध करने की बात का प्राधान्य था, परन्तु आजकल कभी अपने को वेदान्ती कहने वाले लोग भी अवतार के अस्तित्व का अपलाप करने लगते हैं। उनका कहना है कि “ईश्वरो नावतरति, व्यापकत्वात्, आकाशवत्” अर्थात ईश्वर अवतार नहीं लेता, क्योंकि वह व्यापक है, जैसे आकाश, इस अनुमान से ईश्वर का अवतार बाधित हो जाता है। इस पर कहा जा सकता है कि इस अनुमान का दृष्टान्त ही असिद्ध है, क्योंकि आकाश भी वायुरूप में अवतीर्ण होता है। वायु, तेज, जलादि क्रमेण पृथ्वी रूप से भी उसी का अवतरण होता है। यदि कहा जाय कि यह तो वेदान्तियों के मतानुसार हुआ, परन्तु तैयायिकों के मत से क्या उतर है? तो यह कहना पड़ेगा कि व्यापकत्व हेतु अनैकान्तिक है, क्योंकि व्यापकत्व नैयायिकों के आत्मा में रह जाता है, परन्तु वहाँ अवतरण होता है। साकार होना ही अवतार पदार्थ है। जब नैयायिकों के व्यापक आत्मा देहवान् हो जाते हैं, तब परमात्मा देहवान् क्यों नहीं हो सकता? इस पर यदि कहा जाय कि आत्मा के कर्म होता है, परन्तु परमात्मा के कर्म नहीं होता, तो इसका उत्तर यह है कि विश्व के उत्पादन-पालनादि कर्म ईश्वर के भी होते ही हैं। फिर भी शंका हो सकती है कि देहारम्भ-प्रयोजक कर्म ईश्वर के नहीं हैं। किन्तु इसके उत्तर में कहा जा सकता है कि कौन कर्म देहारम्भक है, कौन भोगारम्भक है, यह बात शास्त्रैकगम्य है। फल-वैचित्र्य से हेतु-वैचित्र्य का अनुमान हो सकता है, परन्तु किस कर्म से कौन फल होता है, इसका निर्णय अनुमान से नहीं होता। जब जीवों के जन्मारम्भक कर्मों को जानने के लिये शास्त्रों के प्रामाण्य की अपेक्षा है, जब शास्त्र प्रामाण्य मान्य है, तब तो फिर प्राणि-कल्याणार्थ अचिन्त्य, दिव्य लीलाशक्ति से ही प्रभु का दिव्य जन्म कर्म हो ही सकता है। इस पर किसी का कहना है कि मधुसूदन स्वामी ने माना है कि अवतार नहीं होता, किन्तु भक्त की भावना से ही विधुरपरिभावित-कामिनी-साक्षात्कार के समान कृष्ण आदि का स्वरूप दिखलायी पड़ता है। परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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