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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
उक्त स्वरूप में दृढ़ निष्ठा के लिये भगवान के मधुर स्वरूप के श्रीचरणों का पुनः ध्यान और अनुराग सहित परिरम्भण कहा गया है, “हृदोपगुह्यार्हपदं पदेपदे।” भगवान के अचिन्त्य अनन्त मधुर मंगलमय स्वरूप में प्रेम और भजन सर्व साधन तथा सर्व फलस्वरूप है। अत: इसमें साधकों तथा सिद्धों दोनों ही की प्रवृत्ति होती है। “इनहिं बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्म सुखहिं मन त्यागा।।” ठीक ही है, तभी तो यह कहा जाता है कि अमलात्मा परमहंस महामुनीन्द्रो को ही भक्तियोग विधान करने के लिये अदृश्य, अग्राह्य, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य, भगवान, अद्भुत-सौन्दर्यमाधुर्यसुधाजलनिधि दिव्यमूर्त्ति धारण करते हैं, अन्यथा छोटे कार्यों के लिये प्रभु का अवतार ऐसा ही अनुचित होगा, जैसे मशक निवारणार्थ भुशुण्डी का प्रयोग (मच्छर हटाने के लिये तोप चलाना) अनुचित होता है, परन्तु समस्त नामरूप क्रियात्मक प्रपंच से व्यावृतमनस्क अमलात्मा परमहंसों को भजनानन्द प्रदान करने के लिये, प्रभु का दिव्य स्वरूप धारण परमावश्यक है। अद्वैत ब्रह्मनिष्ठ परमहंसों को भक्तियोग प्रदान कर उन्हें श्रीपरमहंस बनाना, यही प्रभु के प्राकट्य का मुख्य प्रयोजन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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