भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्ण-जन्म
‘श्री गोपालचम्पू’ में श्रीकृष्ण के जन्म का बड़ा सुन्दर वर्णन मिलता है। श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के बाल्य-सुख के उपभोक्ता श्रीमत् नन्दराय कौन थे? ‘गोप’ शब्द से भी उनका व्यवहार होता है। ‘सच्छूद्रौ गोपनापितौ’ इत्यादि वचनों के आधार पर कुछ लोग उन्हें शूद्र समझ सकते हैं। वैसे तो भगवान का जहाँ ही प्राकट्य हो, वही कुल धन्य है, फिर कोई भी क्यों न हो। परन्तु ‘श्री गोपालचम्पू’ के रचयिता ने तो उन्हें क्षत्रिय से वैश्यकन्या में उत्पन्न, अत: वैश्य माना है। वृष्णिवंश में भूषणस्वरूप देवमीढ़ मथुरापुरी में निवास करते थे। उनकी दो स्त्रियाँ थीं, एक वैश्या-कन्या और दूसरी क्षत्रिय-कन्या। क्षत्रिय-कन्या से शूर हुए जिनके वसुदेवादि हुए और वैश्यकन्या से पर्ज्जन्य हुए। अनुलोम संकरों का वही वर्ण होता है, जो माता का होता है। इसी कारण पर्ज्जन्य ने वैश्यता का ही स्वीकार किया और गो-पालन में ही विशेष रूप से प्रवृत हुए, जो कि वैश्यजाति का प्रधान कर्म है, इसीलिए वे गोप भी कहे गये- पर्ज्जन्य बड़े धर्मात्मा और ब्रह्म हरिपूजनपरायण थे। उनका मातृवंश वैश्य सर्वत्र विस्तीर्ण और प्रशंसनीय था, उनमें भी वैश्यविशेष आभीर वंश था। वैश्य की पुत्री में ब्राह्मण से उत्पन्न पुत्र ‘अम्बष्ठ’ होता है और अम्बष्ठ-कन्या में ब्राह्मण से उत्पन्न ‘आभीर’ होता है। यह आभीर वैश्य ही होता है। ऐसे ही वैश्यकुल की कन्या में देवमीढ़ क्षत्रिय से उत्पन्न पर्ज्जन्य वैश्य थे। यही गोपवंशरूप से कृष्ण-लीला में प्रख्यात हैं, अत: इससे शूद्र गोप पृथक है। यह तो वैश्य ही गो-पालन कर्म से गोप कहे गये। ब्रह्मा ने भी आभीरापरपर्याय गोप-कन्या केा पत्नीत्वेन स्वीकार करके उसके साथ यज्ञ किया था। अत: ‘भागवत’ में भी गर्ग जी से नन्द जी ने कहा था कि इन दोनों पुत्रों का द्विजातिसंस्कार करो-‘कुरु दि्वजातिसंस्कारम्।’’ कृष्ण ने भी “कृषिगोरक्षवाणिज्यं कुसीदं तुर्यमुच्यते। वात्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम्।।” इत्यादि से अपने को गोवृत वैश्य कहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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