भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
अव्यभिचार भक्तियोग
प्रत्यक्चैतन्याभिन्न भगवान को अव्यभिचार भक्तियोग से सेवन करने वाले सात्त्विक, राजस, तामस गुणों का उल्लंघन करके ब्रह्म भाव को प्राप्त होते हैं। गुणमय संसार से छूटने का एकमात्र यही सुन्दर उपाय है। वेदान्तों का श्रवण, मनन करने पर जिस प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परमात्मतत्त्व का निश्चय होता है उसी का निरन्तर निदिध्यासन करने से उसी का साक्षात्कार होता है। रज्जु आदि अधिष्ठान के साक्षात्कार से उसमें कल्पित सर्प, धारा, माला आदि का जैसे अभाव हो जाता है वैसे ही निर्विकार सर्वाधिष्ठान चिदात्मतत्त्व का साक्षात्कार होने से उसमें कल्पित गुणमय प्रपंच का आत्यन्तिक अभाव हो जाता है। इसी कारण “मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।” यहाँ पर अव्यभिचार भक्तियोग से शुद्ध परब्रह्म का निदिध्यासन या ज्ञानाभ्यास ही लिया जाता है। यद्यपि भक्ति का ज्ञान या निदिध्यासन अर्थ पक्षपातयुक्त-सा प्रतीत होता है तथापि ‘स्व-स्वरूपानुसन्धान’ को भक्ति कहा है। विचार करने से यह ठीक भी मालूम पड़ता है। विषयाकार को भजन करने वाला ज्ञान, भक्ति शब्द से कहा जा सकता है। ‘विषयाकारं भजतीति भक्ति’। इसके अतिरिक्त ‘भज सेवायाम्’ धातु से भक्ति शब्द की सिद्धि होती है- ‘भजनं भक्तिः।’ भजन अर्थात सेवन को ही भक्ति कहा जाता है। सेवा यद्यपि शरीर, इन्द्रिय, बुद्धि से की गयी कायिकी, ऐन्द्रियिकी, मानसी भेद से अनेक हैं तथापि मुख्य सेवा मानसी ही है। मानसी सेवा ही सर्वश्रेष्ठ है। महानुभावों ने भी कहा है-
अर्थात प्राणी को सदा श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिये। सेवा में भी मानसी सेवा ही सर्वोत्कृष्ट सेवा है। चित्त की कृष्णोन्मुखता या कृष्ण में तन्मयता ही सेवा है। मानसी सेवा की सिद्धि के लिये ही तनुजा और वित्तजा सेवा करनी चाहिये। अर्थात कायिकी, वाचिकी आदि सेवा करते-करते अन्त में मानसी सेवा की योग्यता प्राप्त होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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