भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गणपति-तत्त्व
सर्वंजगन्नियन्ता पूर्ण परमतत्त्व ही गणपति तत्त्व है; क्योंकि ‘गणानां पतिः गणपतिः।’ ‘गण’ शब्दसमूह का वाचक होता है- ‘गणशब्दः समूहस्य वाचकः परिकीत्तितः।’ समूहों के पालन करने वाले परमात्मा को गणपति कहते हैं। देवादिकों के पति को भी गणपति कहते हैं। अथवा ‘महत्तत्त्वादितत्त्वगणानां पतिः गणपतिः।’ अथवा ‘निर्गुणसगुणब्रह्मगणानां पतिः गणपतिः’, तथा च सर्वविध गणों को सत्ता-स्फूर्ति देने वाला जो परमात्मा है, वही गणपति है। अभिप्राय यह है कि ‘आकाश-स्तल्लिंगात्’ इस न्याय से जिसमें ब्रह्मतत्त्व के जगदुत्पत्तिस्थितिलयत्व, जगन्नि-यन्तृत्व, सर्वपालकत्वादि गुण पाये जायँ, वही ब्रह्म होता है। जैसे आकाश का जगदुत्पत्तिस्थितिकारणत्व ‘आकाशादेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते’ इस श्रुति से जाना जाता है, इसलिये वह भी आकाश पदवाच्य परमात्मा माना जाता है, वैसे ही ‘ओं नमस्ते गणपतये त्वमेव केवलं कर्तासि, त्वमेव केवलं धर्तासि, त्वमेव केवलं हर्तासि, त्वमेव केवलं खल्विदं ब्रह्मासि’ इत्यादि ‘गणपत्यथर्वशीर्ष’ वचन से गणपति ब्रह्म ही हैं। अतीन्द्रिय, सूक्ष्मातिसूक्ष्म निर्णय केवल शास्त्र के ही आधार पर किया जा सकता है। जैसे शब्द की अवगति श्रोत्र से ही होती है, वैसे ही पूर्ण परमतत्त्व की अवगति शास्त्र से ही होती है। इसलिये ‘तं त्वौपनिषदं पुरुषं पुच्छामि’ ‘शास्त्रयोनि-त्वात्’ इत्यादि श्रुतिसूत्र तथा अनेकविध युक्तियों से ही सिद्ध होता है कि सर्व-जगत्कारणब्रह्म शास्त्रैकसमधिगम्य है। यदि शास्त्रातिरिक्त अन्य प्रमाणों से वस्तुतत्त्व की अवगति हो जाय, तो शास्त्र को अनुवादक मात्र होने से नैरर्थक्य-प्रसंग दुर्वार होगा, इसलिये गणपति तत्त्व की अवगति में मुख्यतया शास्त्र ही प्रमाण है। शास्त्रानुसार यही जाना जाता है कि सर्व दृश्यजगत का पति ही गणपति है; क्योंकि ‘गण्यन्ते बुद्धयन्ते ते गणाः’ इस व्युत्पत्ति से सर्व दृश्यमात्र ही गण है और उसका जो अधिष्ठान है, वही गणपति है। कल्पित की स्थिति, प्रवृत्ति अधिष्ठान से ही होती है, अतः कल्पित का पति अधिष्ठान ही युक्त है। यद्यपि कहा जा सकता है कि तब तो भिन्न-भिन्न पुराणों में शिव, विष्णु, सूर्य, शक्ति आदि सभी ब्रह्मरूप से विवक्षित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज