भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
नामरूप की उपयोगिता
नामरूपक्रियातीत, अनाम, अरूप, निष्क्रिय परमतत्त्व की प्राप्ति के लिए ही प्राणी को अनेक क्रियाओं, नामों एवं रूपों का अवलम्बन करना पड़ता है। अनाम के नामकरण एवं अरूप के रूप की कल्पना सचमुच अपरिमेय को परिमित और निःसीम को सीमित करना है। किसी महानुभाव ने कहा है-
अर्थात ‘‘हे नाथ, इतने दूर आपके दर्शनार्थ चलकर मैंने आपकी व्यापकता पर तथा दर्शन से आपकी अगोचरता पर अविश्वास किया और स्तुति से आपकी वाक्परता की भी अवहेलना की। हे दयामय, इन मेरे अपराधों को कृपया आप क्षमा करना।’’ जैसे प्राणी व्यष्टि नामरूप की उपाधि में आसक्त होकर व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए समष्टि-हित का विघातक बन जाता है या समष्टि-हित कार्य में भी सम्मान, ख्याति या धन-लाभादि स्वार्थों को ही प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में प्रधानता देने लगता है, वैसे ही सर्वाधार, परमतथ्य, पारमार्थिक वस्तु में भी नामरूपों की कल्पनाओं से ही नाना विपत्तियों को खड़ा करता है। सच बात तो यह है कि नाम-विशेष और रूपविशेष के अभिमान वालों को व्यक्तिगत विशिष्ट नामों और रूपों से स्तुति की स्पृहा होती है। ग्राह से पीड़ित गजराज ने निर्विशेष परब्रह्म का ही स्तवन किया। उस स्तवन में किसी व्यक्ति विशेष या नामरूप की व्यंजना नहीं थी। उसने यही कहा कि- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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