भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
व्रज-भूमि
श्रीव्रजराज-किशोर के प्रेम में विभोर भावुकों को सर्वस्व श्रीव्रजतत्त्व, अपार, महामहिम, वैभवशाली तथा प्रकृति-प्राकृत प्रपंचातीत है। साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द वृन्दावनचन्द्र के ध्वज-व्रजांकुशादियुक्त, परमपावन, योगीन्द्र-मुनीन्द्र-ब्रह्मरुद्रेन्द्रादिवन्द्य पादारविन्द से अंकित व्रजतत्त्व के सम्बन्ध से भूमि ने अपने को परम सौभाग्यशालिनी समझा है। अहो! जिसके कृपा-कटाक्ष की प्रतीक्षा ब्रह्मेन्द्रादि देवाधिदेव भी करते रहते हैं, वह वैकुण्ठाधिष्ठात्री सर्वसेव्या महालक्ष्मी ही जहाँ सेविका बनकर रहने के लिये लालायित है, उस सवोच्च-विराजमान व्रजभूमि के अद्भुत वैभव का कौन वर्णन कर सकता है? परमाराध्यचरण श्रीव्रजदेवियों ने वृन्दावन-नवयुवराज नन्दनन्दन के प्रादुर्भाव से व्रज की सर्वाधिक विजय बतलायी है- “जयति तेऽधिकं जन्मना व्रजः श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि।” लोक और वेद से अतीत दिव्य-प्रेमवती व्रजयुवतीजन वहाँ प्राणपण से अपने प्राणनाथ प्रियतम परप्रेमास्पद के अन्वेषण में प्रेमोन्माद से उन्मत्त होकर इधर-उधर डोल रही हैं। लोक तथा वेद में यह प्रसिद्ध ही है कि ‘आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति’ अर्थात संसारभर की समस्त वस्तुएँ स्वात्म-सम्बन्ध से ही प्रेमास्पद होती हैं। स्वदेह, स्वपुत्र, स्वकलत्र एवं गेह-ग्राम-नगर-राष्ट्र यहाँ तक कि इष्ट देवता भी स्वात्म-सम्बन्धी ही प्रिय होते हैं। परमात्मा के स्वरूपान्तरों में भी वैसा प्रेम नहीं होता, जैसा स्वात्म-सम्बन्धी इष्टदेव में होता है। जब शर्करादि मधुर पदार्थों के सम्बन्ध से अमधुर चूर्णादि भी मधुर प्रतीत होते हैं तब शर्करादि स्वयं निरतिशय माधुर्य से सम्पन्न हो- यह बात जैसे निर्विवाद सिद्ध है, वैसे ही जिस स्वात्मतत्त्व के सम्बन्ध से अनात्मा भी प्रेमास्पद होता है, वह स्वात्मतत्त्व स्वयं निरतिशय निरुपाधिक प्रेम का आस्पद है- यह बात भी निर्विवाद सिद्ध है। परन्तु, ये व्रजसीमन्तिनियाँ तो अपने जीवनधन अशेषशेखर नटनागर के लिये ही अपने स्वात्मा से भी प्रेम करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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