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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
किरातिनियों का स्मररोग
‘श्रीमद्भागवत’ के ‘वेणुगीत’ में प्रसंग आया है कि एक बार वृन्दावन धामवासिनी किरातिनियों ने वहाँ के हरित घासांकुर, दूर्वा, गुल्म आदि में संलग्न कुंकुम का दर्शन किया। वह कुंकुम श्री भगवच्चरणाम्बुज स्पर्श से उनमें लगा था। उसके दर्शन, स्पर्श और सौगन्ध्य से किरातिनियों के मन में स्मररूप रोग का उदय हुआ। स्मर का अर्थ काम अथवा उत्कण्ठापूर्वक स्मरण है। भावुकों के मतानुसार बाह्य रमण में काम की अपेक्षा है और आन्तर रमण में ताप की। यह दूसरी बात है कि भगवद्विषयक काम आधिदैविक दिव्य काम है। जैसे सुवर्ण की मुद्रिका में दिव्यरत्न के संयोग के लिये लाक्षा अपेक्षित होती है, वैसे ही व्रजांगनाओं को श्रीकृष्ण सम्बन्धार्थ काम अपेक्षित था, और वह यह भूषण था, दूषण नहीं। क्योंकि अन्यत्र काम निन्द्य है, पर भगवच्चरणविषयक होने से वही भूषण है। वैसे किसी विरक्त के लिये जागतिक वैषयिक इच्छा या तृष्णा का होना निन्द्य है, परमार्थ में इन सबका न होना ही उत्तम माना गया है- “तृष्णाक्षयः स्वर्गपदं किमस्ति।” तृष्णा का नाश हो जाना सुख का मूल है। परन्तु कहीं पर यही संतोष दूषण भी है। किसी को भगवच्चरित्र श्रवण, तद्दर्शन आदि में सन्तोष हो जाय, तो क्या यह दूषण न माना जायगा? यहाँ तो जितना ही अधिक असन्तोष, लोभ, चंचलता आदि हो, उतना ही अच्छा है। किसी ने कहा है-
कल्प-कल्पान्तरों के, जन्म-जन्मान्तरों के पुण्यपरिपाक से श्रीकृष्णविषयक अनुराग होता है। पर वह सीमित न रह जाय, तभी उसका महत्त्व या पूर्णता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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