भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निर्गुण या सगुण?
यद्यपि यों तो जब “सर्व खल्विदं ब्रह्म” इत्यादि श्रुतियों के अनुसार सब कुछ ब्रह्म ही है तो फिर प्राकृत स्त्री-पुत्र आदि के प्रेमियों को भी मुक्त हो जाना चाहिये, क्योंकि जब सब वस्तु ब्रह्म ही है, ज्ञान की अपेक्षा है ही नहीं, फिर पत्नी-सेवन भी ब्रह्मसेवन क्यों न माना जाय? इत्यादि शंकाएँ होती हैं। तथापि भगवान निरावरण ब्रह्म हैं और प्रपंच सावरण ब्रह्म है। बस, इसी भेद से भगवान का सेवन ज्ञान बिना भी कल्याणकार है, और प्रपंच-सेवन ज्ञान बिना प्रपंच का ही प्रापक है। जैसे मेघ के सम्बन्ध से आदित्य का रूप छिप जाता है, परन्तु दिव्य उपनेत्र या दूरबीन के सम्बन्ध से आदित्य का स्वरूप आवृत नहीं होता, किन्तु अतिदिव्य स्वरूप में स्पष्ट होता है, वैसे ही प्रपंचोत्पादिनी मलिन शक्ति के सम्बन्ध से प्रपंचरूप में प्रकट ब्रह्म का निजी दिव्यरूप तिरोहित या आवृत हो जाता है। परन्तु दिव्य लीलाशक्ति के योग से दिव्य मधुर सगुण साकार श्रीराम, श्रीकृष्ण रूप में प्रकट परब्रह्म का स्वरूप आवृत नहीं होता, किन्तु दिव्य स्वरूप में प्रकट होता है। अतः निरावरण रूप में ज्ञान की आवश्यकता नहीं, सावरण रूप में ही है। सत्त्वादिगुणकृत प्रभाव से विनिर्मुक्त होने के कारण ही ये निर्गुण भी कहे जाते हैं। इसी आशय से ‘हरिर्हि निर्गुणः साक्षात्’ इत्यादि उक्तियाँ हैं। इन्हें जारबुद्धि से समाश्रयण करके भी कुछ व्रजांगनाएँ मुक्त हो गयीं।- ‘तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्याऽपि संगताः। जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः।।’ जैसे चिन्तामणि में दीपक-बुद्धि से भी प्रवृत्त होने से प्राप्ति चिन्तामणि की ही होती है वैसे ही निरावरण श्रीकृष्ण परमात्मा में किसी भी बुद्धि से प्रवृत्त क्यों न हो प्राप्ति अखण्ड अनन्त निरावरण ब्रह्म की ही होगी |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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