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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
साक्षान्मन्मथमन्मथः
स्त्री-पुत्रादि में प्रेम तभी तक है, जब तक वे अनुकूल हैं, प्रतिकूल होते ही वे द्वेष्य हो जाते हैं, परन्तु सुख और आनन्द सदा ही प्रिय रहता है। कभी किसी को भी आनन्द से द्वेष हो, यह नहीं कहा जा सकता। इस तरह नास्तिक से भी नास्तिक, आनन्द को चाहता है, उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्नशील होता है, और उसके लिये लालायित होता है, परन्तु उसमें पहचानने की ही कमी है। क्योंकि जिस आनन्द और सुख के लिये नास्तिक व्यग्र है, उसे पहचानता नहीं। वह तो सुख-साधन, स्त्री-पुत्रादि, शब्द-स्पर्श आदि संभोग में ही, सुख की भ्रान्ति से फँसकर, उसमें ही संतुष्ट हो जाता है। विवेचन करने से विदित हो जाता है कि जिनमें कभी प्रेम कभी द्वेष होता है, वह सुख नहीं है, सदा ही जिसमें निरतिशय एवं निरुपाधिक प्रेम होता है, वही सुख है। जागतिक संभोग साधन पदार्थ ऐसे हैं नहीं, अतः वे सुख रूप नहीं है, किन्तु अभिलषित पदार्थ की प्राप्ति में तृष्णा प्रशमन के अनन्तर, जिस शान्त अन्तर्मुख मन पर सुख का आभास पड़ता है, उस आभास या प्रतिबिम्ब का निदान या बिम्बभूत जो शुद्ध अन्तरात्मा है, वही आनन्द है, क्योंकि जो लक्षण आनन्द का है वही अन्तरात्मा का है। जैसे सब कुछ आनन्द के लिये प्रिय है, आनन्द और किसी के लिये प्रिय नहीं होता, ठीक ऐसे ही समस्त वस्तु आत्मा के लिये प्रिय होती है, आत्मा किसी दूसरे के लिये प्रिय नहीं होता; अतः अन्तरात्मा ही आनन्द है और निरतिशय निरुपाधि परप्रेम का आस्पद है, उसी का आभास अन्तःकरण पर पड़ने से अहं सुखी इत्यादि व्यवहार होता है। यही सुख किंवा अन्तरात्मा है। इसी के लिये समस्त कार्य-करण-संघात की प्रवृत्ति होती है, यही सुख-दुःख-मोहात्मक संघात से विलक्षण, सुख-दुःख-मोहातीत, असंहत, असंग, (बन्धन से छूटना) चाहता है। एक चींटी को भी पकड़ने पर, वह व्याकुलता के साथ हाथ-पैर चलाती है, शुक-सारिका आदि विहंगम सुवर्ण के भी पंजर में रहकर वन में खट्टे फल को भी खाकर जीवन बिताना अच्छा समझते हैं, इसी तरह प्राणीमात्र बन्धन से छूटने तथा स्वतन्त्रता के लिये लालायित हैं। ऐसी स्थिति में कौन नास्तिक बन्धनमुक्ति और स्वतन्त्रता न चाहेगा, परन्तु स्वतन्त्रता का वास्तविक रूप विवेचन करने से स्पष्ट होगा कि यह भी भगवान का ही स्वरूप है, क्योंकि बिना असंग सच्चिदानन्द भगवान को प्राप्त किये, बन्धनमुक्ति स्वतन्त्रता की कल्पना अत्यन्त ही निरालम्बन है। जब तक स्थलू, सूक्ष्म तथा कारणदेह का सम्बन्ध विद्यमान है, तब तक स्वतन्त्रता कैसी? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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