नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
14. तुंगी तायी-दुग्ध–पान
महर्षि ने गणपति, नवग्रह, योगिनी, कलशादि की पूजा करा-के आवरण देवताओं की पूजा करायी। कितने सौभाग्य से यह दिन आया कि मैं देवर को अंक में अपने लाल को लिए श्रीहरि की पूजा करते देख सकी! युग-युग जीवे लाल! भगवान नारायण इस पर सदा सुप्रसन्न रहें! मेरे रोम-रोम से जो आशीर्वाद निकल रहा था, वही तो रजत श्मश्रु, वली पलितकाय, तेजोमूर्त्ति, तपस्वी ऋषि-मुनियों ने दुहराया सस्वर सामगान तथा श्रीहरि का स्तवन करने के अनन्तर। आकाश में देववाद्य बजते रहे और हमारा नन्दभवन बाहर-भीतर वाद्यों से, शंख-ध्वनि से, वेद-पाठ से और गोपियों के गान से गूँजता रहा। पुष्पों की वर्षा से प्रांगण पट गया था। सच कहूँ- मैंने स्वप्न में भी न क्षीरसमुद्र देखा है, न उसमें अनन्तशायी हरि की झाँकी पायी है। कोई अभिलाषा भी मन में नहीं है। महर्षि ने नन्द प्रांगण में जो पूजन के लिए श्रीहरि का प्रतिरूप बनाया था, क्षीराब्धि के मध्य, वह बहुत सुन्दर था; किंतु मेरे नेत्र सफल हो गये, मेरे सम्मुख जन्म-जन्म में बस यह शोभा बसी रहे! मरे नन्दलाल के पलने में पौढ़ने की शोभा। इससे अधिक सुन्दर न क्षीराब्धि हो सकता है और न उसके अधिष्ठाता। शुभ्र रजत-पालना और उसमें स्फटिक, हीरक लगे हैं। मुक्ताओं की झालरें लटक रही हैं। पद्मराग, पुष्पराग, वैदूर्य, इन्द्र नीलमणि आदि के खिलौने, शुकसारिकादि तो लगते हैं कि क्षीराब्धि पर रंग-बिरंगे पक्षी उतर आये हैं और इसके दुग्धोज्वल मृदुल आस्तरण पर यशोदा ने अब अपने लाल को मन्त्र-पाठ, पुष्पवृष्टि के मध्य लिटा दिया है। इस नन्हें से नीलमणि के लिए पलने का ही यह पयोधि पर्याप्त है। अब यह इस पर किलकेगा, अपने अरुण कर-पद उछालेगा। महर्षि ने तो पलने की, रज्जु की और खिलौनों की भी पूजा करायी है। विप्रगण स्वस्ति-पाठ कर रहे हैं और गोपों में तो आज मेरे इन देवर के बड़े भाई तक नाचने लगे हैं। अब मुझसे कैसे रहा जायगा और मैं रहना भी चाहूँ तो ये देवरानियाँ मुझे बैठे रहने देंगी। मैं नाचूँगी-जीभर कर नाचूँगी। बधुयें क्या नाचेंगी मेरे साथ- मेरी जन्म-जन्म की साध पूरी हुई है। मेरे देवर का लाल पलने में किलक रहा है मेरे सम्मुख, मैं क्यों बैठी रहूँ? |
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