नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
14. तुंगी तायी-दुग्ध–पान
हम सब नाचती-नाचती थक गयीं; किंतु रोहिणी रानी को आज किसी की सुधि नहीं है। ये पलने की रज्जु क्या पा गयीं- सारे संसार को ही भूल गयी हैं। कुछ गा रही हैं- कोई लोरी गा रही हैं और वह भी इतने मन्द स्वर में, मानों आसपास यह महोत्सव हो ही नहीं रहा है। मानों उनकी लोरी पलने में पौढ़ा सुकुमार सुन रहा है। ये तो तन्मय, पुलकित तन, परमानन्द मग्न मन गा रही हैं और इसे देख रही हैं। यह नन्हा सुकुमार भी न खिलौने देखता है, न हममें-से किसी को और न अपने अग्रज को। यह भी अपनी बड़ी माँ को देख-देखकर किलक रहा है, अपने कर उठाता है, चरण उछालता है, मानों कुछ कह रहा हो अपनी इन माँ से। हम सब हैं कि चाहती हैं- नाचती, थिरकती आती हैं समीप, स्नेह से चुमकारती हैं कि यह तनिक देख ले हमारी ओर; किंतु आज यह अपनी बड़ी माँ में मग्न है और बड़ी माँ इसमें मग्न है। नन्दनन्दन आज इकतीस दिनका हो गया। आज से गो-दुग्ध पिलाया गया है। आज का यह महोत्सव- आज तो श्रीहरि ने ही मेरी लज्जा रख ली। मुझसे यशोदा के सम्मुख ही सबेरे देवरानी पीवरी ने पूछा था- 'व्रज के युवराज को दूध कौन पिलावेंगी?' मेरे मुख से निकलने ही जा रहा था- 'इसकी धात्री बनने का स्वत्व मेरा है।' श्रीनारायण ने मेरी जिह्वापर सरस्वती को ही बैठाया होगा कि मेरे मुख से निकल गया- 'समय पर ही निश्चय हो जायगा।' किसके मन में नहीं है। गोपियों ने मेरा संकोच किया, यह अच्छा ही हुआ। सबकी ही साध है, मैं अपने ही मन से जानती हूँ कि कितनी साध थी मेरे मन में; किंतु कह बैठी होती तो कितने बड़े सौभाग्य से वञ्चित हो जाती। मेरी साध तो सहस्रगुना करके नारायण ने पूरी कर दी। 'व्रजेश्वरी! मुझे अपने पुत्र की धाय तो बना लेना!' एक ने भी मेरा संकोच तोड़कर कह दिया होता तो फिर सब कहतीं और बेचारी यशोदा बहुत बड़े असमंजस में पड़ जाती। मुझे पीवरी से भी भय था। वह मेरी बड़ी देवरानी है, हँस-मुख है और मन में आयी बात को झट मुख से कह देती है। वह अभी मेरे पैर पकड़कर हँसकर कह गयी है- 'जीजी! तुमने मुझे बचा लिया। मैं तो कहने जा रही थी कि तुम अपने देवर के लाल की धाय मुझे बना लो; किंतु यह सोचकर रुक गयी कि तुम बड़ी हो। तुमसे स्पर्धा करना मुझे शोभा नहीं देगा।' |
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