नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. सनकादि कुमार-पूतना-मोक्ष
कहीं वह शुद्ध कामना रह पाती- भगवान वामन ने भूमिदान का संकल्प बलि से पाया और विराट बन गये। दो पदों में त्रिलोकी माप ली उन्होंने और बलि के मस्तक पर तीसरा पद धर दिया। उन सर्वसमर्थ के संकेत से गरुड़ ने बलि को वारुण पाशों में बाँधा- बड़ा कोलाहल, बड़ा हाहाकार गूँजा। सहसा रत्नमाला का ध्यान भंग हुआ। वह पिता को बन्धन में देखकर झल्ला उठी- हुंह! इसे मैं दूध पिलाऊँगी? इसे तो मैं विष दे दूँगी, मुझे यह मिल जाय तो!' सुरतरु स्वभाव श्रीहरि ने इसे- इस कामना को भी उसी समय 'एवमस्तु' कह दिया। आसुर संकल्प-बालक को विष देने का संकल्प, फलत: दैत्येन्द्र बलि की तनया धरा पर राक्षसी होकर उत्पन्न हुई और आज वह अपने स्तनों में हलाहल विष लगाकर आ रही है अपनी कामना-दोनों कामनाएँ पूर्ण करने। यह परम पुरुष की धात्री तो हो ही गई! इन करुणा-सिन्धु के सम्मुख आकर, इनका स्पर्श करके किसी का कलुष बचा रहता है? रत्नमाला राक्षसी पूतना बनकर उत्पन्न हुई। इस दैत्येन्द्र तनया का दुर्दम पराक्रम; किंतु सर्वस्वरूप श्रीहरि को शिशु मानकर भी जो उनकी हत्या का संकल्प करे, वह उसके अनुरूप स्वभाव ही तो लेकर उत्पन्न होती। पूतना शिशु-घातिनी है। रुधिराशना-शिशुओं का रक्तपान इसका व्यसन है। सब शिशु उन श्रीवत्सवक्षा के ही तो स्वरूप होते हैं। यह शिशु-घातिनी क्रूर ग्रह है। कंस ने दिग्विजय के समय बुद्धिमानी की। पूतना से मल्लयुद्ध करके उसे क्या यश मिलना था। उसने इसे बहिन बना लिया इसके दोनों भाइयों बकासुर और अघासुर को अनुचर बनाने के साथ।[1] अब यह कंस का कल्याण करती घूमती है। कंस को देवी योगमाया कह गयी हैं- 'तेरा शत्रु कहीं उत्पन्न हो गया! कंस के क्रूर मन्त्रियों ने उसे आश्वासन दिया कि दस दिन के और उससे छोटे सब शिशु हम मार देंगे। पूतना ने इस कार्य का भार अपने ऊपर लिया है। यह इसकी प्रिय-क्रीड़ा है। पूतना स्वभाव से शिशु-घातिनी- इसे कंस ने आग्रह-पूर्वक नियुक्त कर दिया इस कार्य पर और यह पिछले मानवों के पाँच दिनों से अहर्निशि कंस के काल उस 'कहीं उत्पन्न' शिशुको मारने के प्रयत्न में ग्रामों में, नगरों में पशु-पालकों की झोपड़ियों में शिशु-हत्या करती घूमती रही है। सहस्त्रों शिशु मारे इसने। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'भगवान वासुदेव' में यह कथा पूरी कही है।
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