नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
13. सनकादि कुमार-पूतना-मोक्ष
'ओह! भगवान वासुदेव को लेकर वसुदेवजी गोकुल पधार रहे हैं! इन्द्र को भी अधिक अवसर नहीं था। 'मुझे सेवा करनी चाहिए!' सुरेन्द्र उस समय तीव्र वृष्टि में संलग्न हो गये और वसुदेवजी के मार्ग को इस प्रकार नष्कण्टक रखने में लगे। वे यह न भी करते तो भी देवी योगमाया तो थीं ही; किंतु समय मिलने पर जीव सेवा न कर पावे- अभाग्य उसका। सुरपति उचित ही कर रहे थे। वसुदेवजी तक को तो योगमाया ने देखने नहीं दिया कि वे जिस कुमार को लाये हैं, वह मैया यशोदा के पर्यंक पर पड़े अपने अंशी में कितनी त्वरा से एक हो गया। वे तो योगमाया दृष्टि पड़ते ही उसी को देखते रह गये। देवताओं को तब नन्द-भवन स्तुति, पुष्पाञ्जलि प्राप्त करने योग्य प्रतीत हुआ, जब योगमाया को लेकर वसुदेवजी ने मथुरा का पथ पकड़ा। अब यह पूतना व्रज की ओर चली है। हमारी दृष्टि तो इसका भूत-भविष्य दानों वर्तमान में ही देखती है, अत: यह हमारी प्रणम्य ही हैं। श्रीहरि का स्वेदोद्भव है कल्पतरु। उन अनन्तशायी का ही स्वभाव एवं प्रभाव-छाया, इस क्षीरोदधि समुद्भव सुरतरु में आयी है। दैत्यराज बलि ने स्वर्ग पर आधिपत्य भले कर लिया था; किंतु उनकी पुत्री रत्नमाला पर यह रहस्य कहाँ प्रकट था। बलि के अन्तिम अश्वमेध यज्ञ में भगवान वामन पधारे तो उनके आकार तथा उस आकार के अनुरूप सुकोमल नन्हे मुख, कर-चरण देखकर दैत्यराज-तनया का वात्सल्य उमड़ पड़ा। वह बोल नहीं सकती थी। सब ऋत्विक, आचार्य शुक्र तक अमित तेजस्वी वामन को देखते ही अपनी आवह्नीय अग्नियों को हाथों में लेकर उठ खड़े हुए थे। उन प्रभा-प्रदीप्त अदिति-नन्दन का दैत्यराज स्वागत करने लगे थे। इतने सम्मानित बालक के सम्बन्ध में रत्नमाला कुछ भी कहती कैसे; किंतु उसका हदय मचल रहा था- 'यह सौन्दर्य-सिन्धु बालक! यह कहीं मेरी गोद में आ पाता! मैं इसे अंक में लेकर स्तनपान करा पाती! जननी भले नहीं बनी; किंतु मैं इसकी धात्री भी बन पाती तो धन्य हो जाती!' धन्य तो हो गयी उसी क्षण रत्नमाला। उसके नेत्र बन्द हो गये और वह ध्यान करने लगी-उसके अंक में वामन-बहुत छोटे बने शिशु हैं और उसने उनके मुख में अपना स्तनाग्र दे दिया है। |
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