नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. उद्धव
'अभी तो नहीं आये; किंतु- 'मैं इतना कहकर स्तब्ध रह गया। मुझे लगा कि कालिन्दी शुष्क हो गयी हैं। उनके अल्प जल में कच्छपों की भरमार है। जहाँ तक दृष्टि जाती है, वन दवाग्नि-दग्ध दीखता है। जिनके वियोग की विषम ज्वाला में सम्पूर्ण प्रकृति को इतना प्रभावित करने की सामर्थ है, उन गोपकुमारों की दशा का कैसे वर्णन करूँ। अभी-अभी जिनका सौन्दर्य सुरों को भी लज्जित करता था, उनके शरीर काले पड़ गये, कल्पनातीत कृश हो गये और सन्देह होने लगा कि उनमें-से किसी की श्वास भी चलती है या नहीं। अचानक एक का उत्फुल्ल स्वर गूँजा- 'कन्हाई तो आ गया। वह क्या उसकी श्रृंग-ध्वनि हमें पुकार रही है।' मुझे कोई ध्वनि सुनायी नहीं पड़ी; किंतु गोपकुमार पहिले के समान सुन्दर, प्रफुल्ल हो गये थे। वे उठे और दौड़ते चले गये। कालिन्दी निर्मल, गम्भीर-सलिला हो गयी थीं। सम्पूर्ण वन कैसे इस अर्ध पल में हरित, पुष्पित, फलभार-भूषित हुआ-कोई भी समझ नहीं सकता। इसका एक सुपरिणाम हुआ। मैं व्रजधरा की दिव्यता से परिचित हो गया। सावधान हो गया कि श्रीकृष्णचन्द्र अपनी जिन परम प्रिया का स्मरण करके संज्ञा-शून्य हो गये थे, उनके सम्मुख मुख खोलने का मुझे साहस नहीं करना चाहिए। मुझे उनके श्रीचरणों के दर्शन करके ही संतोष करना चाहिए। गोपियों के सम्मुख भी बहुत पाण्डित्य प्रकट करना व्यर्थ होगा। मेरा विद्या-गर्व गलित हो गया। मैं स्नान करके लौट रहा था तो गोपियों का समूह मार्ग में मिला। लगा कि वे मेरी प्रतीक्षा कर रहीं थीं। सबने मेरा समयोचित सत्कार किया। मुझसे सविनय, सलज्ज ही पूछा- 'मथुरा से मयूर मुकुटी वनमानी स्वस्थ, सकुशल, सुप्रसन्न हैं? कभी व्रज का भी स्मरण करते हैं? माता-पिता को देखने क्या कभी आवेंगे? हम सब तो तभी उनके श्रीमुख का दर्शन पा सकती हैं!' 'आप तो उनके रहस्यज्ञ हैं। अन्यथा हमारे समीप वे आपको भेजते नहीं।' किसी-ने उनमें-से कहा- 'कभी नागरिकाओं की गोष्ठी में अथवा किसी रस-चर्चा के मध्य वे हमारी भी कोई बात करते हैं? हम किंकरियाँ भी उनको स्मरण आती हैं? वे कभी रास-रजनी की भी सुधि करते हैं, जब हमारे स्कन्धों पर विशाल बाहु रखकर नृत्य किया था उन्होंने?' मैं उनके स्वर की व्यथा, उनकी उन्मादिनी भंगी अधिक सह पाने में असमर्थ था। मेरे स्वामी ने इनको समझाने का मुझे विशेष आदेश दिया था। अतः मैं बोलने लगा- 'आप सब महाभागा हैं। अनेक जन्मों के पुण्योदय होने पर श्रीकृष्ण के पदारविन्दों में प्रीति प्राप्त होती है। वे आत्माराम, पूर्णकाम आप सबके अन्तर में ही विराजमान हैं। आप उन हृषीकेश अधोक्षज को अपने भीतर ही प्राप्त कर सकती हैं। |
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