नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. उद्धव
व्रजराज का कण्ठ गद्गद था। रोम-रोम उत्थित हो रहा था और अश्रुधारा एवं स्वेद-धारा में मानो स्पर्धा प्रारम्भ हो गयी थी। उनके नेत्रों की भंगी, उनका विवर्ण बदन, उनकी कम्पित काया देखकर मैं भयभीत हो उठा कि किसी क्षण उनकी संज्ञा साथ छोड़ सकती है। मैया की दशा और चिन्तनीय थी। उनकी पलकें भी गिर नहीं रही थीं। उनके निष्कम्प शरीर में चेतना है भी, यह सोच पाना भी कठिन था। मुझे शीघ्रता करनी चाहिए, यही बात मेरे ध्यान में आयी। 'श्रीकृष्ण सर्वात्मा सर्वेश्वर हैं। आप दोनों परम धन्य हैं कि आपका उनमें ऐसा सुस्थिर निर्मल स्नेह है। वे तो सर्वरूप सबकी आत्मा है। उनका कोई माता-पिता-भाई नहीं हैं। वे ही सबके माता-पिता-स्वजन-संबंधी एवं संचालक हैं।' मैंने जो श्रवण करके अपने मनन, निदिध्यासन से अनुभव किया था, सुनाना प्रारम्भ कर दिया- 'वे भावग्राही भक्त-वत्सल सर्वत्र हैं। अपने में श्रद्धा-प्रीति रखने वालों से दूर वे कभी रहते नहीं। आप उन्हें परिच्छिन्न, परिमित मानकर क्यों मोह में पड़ते हैं। वे तो आपके ही भीतर हैं। आप सदा उनको अपने समीप देखेंगे।' मैं कब तक अपना पाण्डित्य प्रकट करता रहा, मुझे पता नहीं लगा। व्रजराज और मैया बोले नहीं। अब समझता हूँ कि वे अपने पुत्र का सखा समझकर मेरी बातें शान्त सुनते रहे। पूरी रात्रि बैठे सुनते रहे। मेरी बकवाद चलती रही। रात्रि के अन्त में मेरी अन्तिम बात सुनकर मैया अकस्मात आतुरतापूर्वक उठी- 'नीलमणि सदा हमारे समीप रहेगा? वह आते ही नवनीत[1] माँगेगा। मुझे अभी दधि-मन्थन करना चाहिए।' मैया उठ गयी तो मेरा स्वप्न टूटा। मैं इन मूर्त्तिमयी ममता को क्या सुना रहा था? इन्होंने मेरे वाक्यों का केवल अन्तिम अंश अपने ढंग से समझा। ब्रह्ममुहूर्त्त हो चुका था। व्रजराज मुझे अपने साथ यमुना-स्नान कराने ले जाना चाहते थे; किंतु मैंने विनयपूर्वक एकाकी जाकर स्नान-सन्ध्यादि करने की अनुमति ले ली। मुझे अभी गोपकुमारों से, गोपियों से, मिलना था। व्रजराज मेरे संकोच से अवश्य कुछ समझ गये। उन्होंने अनुमति दे दी। गृहों में दीप प्रज्वलित थे। दधि-मन्थन-शब्द के साथ गोपियों के कंकणों की ध्वनि और उनके कलकण्ठ से उठता श्रीकृष्ण-सुयश का मंगलगान दिशाओं को पवित्र कर रहा था। मैं उसे सुनता यमुना-स्नान करने पहुँचा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ माखन
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