नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. उद्धव
'मैं तुम सबसे स्थूल रूप से इसलिये दूर हूँ, जिससे तुम मन से मेरे अत्यन्त सन्निकट रहो। तुम मुझमें हो और मैं तुममें हूँ। हमारा यह अभिन्नत्व कभी भंग नहीं हो सकता। मुझे तुम अपने समीप ही सदा देखोगी।' स्वामी का यह सन्देश मैंने सुना तो दिया; किंतु मैं तब इसका किञ्चित अर्थ भी समझता नहीं था। मैं तो इसे भी अपने निर्गुण-निराकार तत्त्वबोध का ही अंग मानता था। मैंने अपनी पूरी शक्ति से अपना तत्त्वज्ञान उनके गले उतारने का प्रयत्न किया। अकस्मात कहीं से उड़ता एक भ्रमर आ गया। मुझे अपनी बात सुनाने की धुन में ध्यान ही नहीं रहा था कि ये प्रेम-मूर्तियाँ मेरी ज्ञानचर्चा में रुचि लेने के स्थान पर प्रायः उन्मादिनी, आत्मविस्मृता बन चुकी हैं। मुझे तो वे भूल ही गयीं। वह मधुप ही उन्हें अपने प्रेष्ठ का दूत प्रतीत होने लगा। वे उसी को उपालम्भ देने लगीं। 'मधुकर! तू भी अपने स्वामी के समान कपटी है। पुष्प-कलिकाओं का रस लेता फिरता है और कभी किसी-का होता नहीं। वे भी तेरे समान ही अपनी स्वर-माधुरी से हमें मुग्ध करके अब निर्गुण बनने लगे हैं। उन रस-स्वरूप श्रीराधारमण को अब पूर्णकाम कहलाना रुचने लगा है।' वे कहती गयीं- 'उन निखिल कला-निधान, त्रिभुवन-सुन्दर की कोई झाँकी तुझे मिली भी या नहीं; किंतु तू कहता सच है- हमें भी अब अणु-अणु में वही त्रिभंगसुन्दर श्याम दीखता है। लेकिन वह सर्वत्र नेत्र खोले दीखता है, नेत्र बन्द करने पर भी तो वही दीखता है तो तू केवल भीतर देखने की बात क्यों करता है? नेत्र बन्द करने से क्या अन्तर आने वाला है? हम तो उद्विग्न हैं उसके सर्वत्र दीखने से। दूध दुहते, भोजन बनाते, घर झाड़ते-लीपते, दधि-मन्थन करते वही मुस्कराता सामने खड़ा दीखता है और हम कोई काम नहीं कर पातीं। हम तो उसे भूल जाना चाहती हैं और तू उसके स्मरण की स्तुति करने लगा है। यह सब स्तुति उनसे कर, जिनको उसकी प्रत्यक्ष सन्निधि प्राप्त है। वे तेरा सत्कार करेंगी।' 'भ्रमर! तुम बुरा मत मानना। हमारे सर्वस्व के सखा हो- सन्देश-वाहक हो, हमारे सम्मान्य हो। हम तो उन्मादिनी हैं, हमारे कठोर वचनों को क्षमा करना।' वे सचमुच उन्मादिनी के समान प्रलाप कर रही थीं- 'उनकी अनुकम्पा कि उन्होंने हमारा स्मरण करके तुम्हें भेजा। वे सुखी रहें, सुप्रसन्न रहें! हमारे सम्बन्ध में उनसे कुछ ऐसा मत कहना जिससे उनका चन्द्रमुख किञ्चित भी म्लान हो। वे जहाँ, जैसे जिससे सुखी हों, उसी-में हमारा सब सुख है।' मुझे तो इनके इस उन्मत्त प्रलाप ने ही प्रबुद्ध कर दिया। प्रेम का पुनीत स्वरूप मैंने प्रथम बार प्रत्यक्ष किया। पदरजली मैंने उनकी और अपने परम प्रेष्ठ के प्रियजन के नाते उन्होंने भी मुझ अभिमानी को अपने कृपा-प्रसाद से अपनाया। मुझे अपना अन्तरंग मान लिया। |
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