नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. उद्धव
पल में प्रिय की वियोग-वह्वि में समूल उत्खनिता विशेष दग्धा वह दिव्यमूर्त्ति और पल में ऐसी प्रफुल्ला- इतनी उत्सुकता मानों प्रिय का प्रत्यक्ष संसर्ग प्राप्त हो गया है। मैंने इन मानिनी का दिव्य मान ओर उनकी असीम अनुराग-भंगी भी देखी। वाणी में जो कुछ अनुभव किया, उसके वर्णन की शक्ति नहीं है। मैं समझ नहीं पाता कि श्रीकृष्णचन्द्र इनसे दूर मथुरा जाने में सफल कैसे हुए और वहाँ रह कैसे पाते हैं। मैं प्रथम दिन- प्रथम पद-दर्शन में ही गोपियों के शिक्षक के स्थान पर उनका शिष्य हो गया। जो स्वामी अत्यन्त उदार, कृपा-पारावार, दयाधाम मुझे लगते थे, वे ही मुझे अतिशय क्रूर, निर्मम, निष्ठुर लगने लगे। मैं मथुरा तो लौटूँगा; क्योंकि उन्हें यहाँ के इस अनन्त प्रेम का स्मरण दिलाकर कहना है कि वे यहाँ आ जायँ। मथुरा के लोग ही नहीं, त्रिलोकी की भी उपेक्षा उचित है किंतु व्रज के इस प्रेम की उपेक्षा? यह कैसे कर पाते हैं वे? कोई भी ऐसा कारण हो सकता है जो उन्हें यहाँ से अन्यत्र रख सके। स्वामी को सचेत करके लाना न हो, मेरे मन में अब कोई इच्छा व्रज से कहीं जाने की नहीं है। यहाँ इस रूप में बस जाने की सुविधा तो बहुत बड़ी बात है। इतना सौभाग्य- इतने पुण्य मेरे नहीं हो सकते; किंतु मैं इस व्रज में तृण, लता, गुल्म, वृक्ष कुछ भी होकर रहना चाहता हूँ। मुझे इन गोपियों की पद-रज प्राप्त होती रहे! यही- एकमात्र यही अभिलाषा मेरे मानस में अब शेष रह गयी है। श्रीरासेश्वरी अनन्त करुणामयी हैं। वे माँगने पर अवश्य यह आशीर्वाद मुझे दे सकती हैं; किंतु उनके सम्मुख पहुँचने पर तो अपनी भी सुधि नहीं रह जाती। अपना भी रोम-रोम 'कृष्ण-कृष्ण' पुकारने लगता है। अतः यह प्रार्थना मथुरा पहुँचकर स्वामी से ही करनी पड़ेगी। उनके समीप मैं सावधान रहता हूँ। गोपियों ने मुझे अपना लिया है। ये मुझे अपने साथ लेकर वृन्दावन की कुंजों, कालिन्दी-कूल के घाटों, वीथियों, श्वेत-श्याम पर्वतों के मध्य की साँकरी खोह आदि में घूमती हैं। मुझे उन रसिकशेखर के अमृतचरित सुनाती हैं। इनके वर्णन, इनके संगीत, इनकी भाव-विह्वल भंगी के श्रवण-दर्शन का सौभाग्य मिला मुझे। मुझे पता ही नहीं लगता कि कब प्रातः से रात्रि के प्रथम प्रहर तक का समय समाप्त हो जाता है। श्रीकृष्णचन्द्र के सखाओं की गति मेरी समझ में नहीं आती। लगता है कि उन्हें अपने सखा की नित्य सन्निधि प्राप्त है। उनमें अनेक ने कई बार कहा- 'तुम मथुरा के लोग क्या गोचारण सर्वथा नहीं जानते? तुम्हें कोई गायें घेरने को नहीं कहेगा। कन्हाई के साथ खेलने में भी क्या नागरिकों को संकोच लगता है?' मैं क्या कहूँ इनसे। मुझ वृहस्पति के शिष्य में इतनी सरलता, सौम्यता कहाँ है? मैं साथ चलूँ तो अवश्य इनके आनन्द में बाधक ही बनूँगा। मेरे पास समय भी तो नहीं है। गोपियों को मैंने गुरु माना है और वे प्रभात से ही मेरी प्रतीक्षा करने लगती हैं। प्रतिदिन मुझे अपने प्रेष्ठ की कोई नवीन लीला-स्थली के दर्शन कराती हैं और उनके अमृत-चरित सुनाती हैं। जीवन के ये अमूल्य क्षण कैसे छोड़े जा सकते हैं। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज