नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. गायत्री-केशी-क्रंदन
केशी केवल हिनहिना सकता था; किंतु कृष्णचन्द्र के कण्ठ से जो सिंहनाद के समान गर्जना निकली- काँप गया असुर भी उससे। ये तो जैसे इतने विशाल काले अश्व को देखकर प्रसन्न हो गये हों, इस प्रकार पुकारा- 'कहाँ भागा जाता है? आ! आजा! मैं यहाँ खड़ा हूँ।' केशी आगे बढ़ गया था। आह्वान सुनते ही पलटा- 'यही! यही है वह बालक। तमालनील, पीतवसन, मयूरमुकुटी- अवश्य यही है।' इसी को तो केशी अन्वेषण कर रहा था। यह स्वयं न आ जाय, स्वयं न पुकारे तो कोई इसे अन्वेषण करके कभी पा सका है? केशी दौड़ता आया और तनिक आगे जाकर पिछले पदों से दुलत्ती का पूरा प्रहार इसने इन पद्मपलाश-लोचन के वक्ष पर किया। कृष्णचन्द्र एक ओर कूद गये और अश्व के दोनों पद पकड़कर उसे अवज्ञापूर्वक सौ धनुष दूर फेंक दिया। ठीक ऐसे फेंक दिया जैसे गरुड़ ने किसी सामान्य सर्प को पकड़ कर झिंझोड़कर झटक दिया हो। केशी अमर नहीं होता तो अवश्य मर गया होता। अश्व के लिए गिर जाना अस्थि-भंग-कारक बन जाता है। केशी की अस्थियाँ चूर्ण हो गयी होतीं। वह भारी धमाके के साथ गिरा था; किंतु असाधारण अश्व था। अमर असुर अश्व गिरते ही उठा। केवल किञ्चित मूर्छा आयी थी उसे। उठते ही क्रोधान्ध मुख फाड़कर दौड़ा श्रीकृष्ण की ओर। कोई अमर यदि अविनाशी का अंग आत्मसात करना चाहेगा तो क्या होगा? अमर भी समीम ही होता है। अविनाशी अनन्त को अपने भीतर लेने जाकर फटकर सत्ताहीन होना अनिवार्य है उसके लिये। यही हुआ केशी के साथ। वह मुख फैलाये आया तो व्रजराजकुमार ने मुस्कुराते हुए वाम कर की मुट्ठी बाँध ली और वह बाहु केशी के मुख में ऐसी प्रविष्ट हो गयी जैसे सर्प स्वयं विल में चला जाय। उस वज्र-बाहु के स्पर्श से केशी के सब दाँत टूटे और उदर में चले गये। गिर पड़ा केशी और पैर फटफटाने लगा। अनन्त अविनाशी की भुजा उसके उदर में बढ़ती चली गयी। श्वास रुद्ध हो गया। केशी के सम्पूर्ण शरीर से स्वेदधारा चल पड़ी, नेत्र निकल आये, लेण्ड निकल पड़ा मलद्वार से और उसका उदर फूट[1] के समान फट गया। नन्दनन्दन ने अपनी सुकुमार भुजा निकाल ली। सुरों का आतंक समाप्त हो गया। वे सुमन-वृष्टि करने लगे। उनका आतंक केशी तो अब गोलोक गया श्यामसुन्दर का अश्व बनकर। अब इसका यह विदीर्ण वपु- गोपों के सेवक कहीं दूर फेंक देंगे और केशी के सहारे ही पले श्रृगाल, गृद्ध, चीलें इसे समाप्त कर देंगी। वे भी पवित्र हो जायँगे इसे खाकर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ककड़ी
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