नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. गायत्री-केशी-क्रंदन
देवर्षि ने आगामी असुर-ध्वन्स का कार्यक्रम शीघ्र सुना दिया और अदृश्य हो गये; क्योंकि सखा समीप आ गये थे। मैया व्रजेश्वरी ने सबको साग्रह भेजा था नीलमणि को लाने के लिये। पता नहीं क्या हो रहा था बाहर। किसी अश्व की भयानक हेषित सुनायी पड़ी थी। 'इसने उस अश्व के मुख में यह बाहु डाल दी थी।' वरूथप ने सुनाया। सब श्याम को घेरकर मैया के सामने ले गये। अब भी वाम भुजा अश्व के श्लेष्मा से क्लिन्न है। 'उसने तुझे काटा तो नहीं?' मैया सशंक अपने नीलमणि की भुजा देख लेना चाहती है। 'मुझे काटता? मुझे तो कोई भी नहीं काटता' अब ये स्वयं आश्चर्यपूर्वक अपनी ही भुजा देखने लगे हैं। जैसे कोई इन्हें काट भी सकता है, यह सम्भावना ही आश्चर्यजनक है। सचमुच काई परिपूर्ण अखण्ड अविनाशी को काट कैसे सकता है? ये तो भोलेपन से कहते हैं- 'बतलाऊँ?' 'अब तू बतलाना रहने दे!' मैया जानती है कि बतलाने के नाम पर उनका लाल श्वान, मार्जार या किसी भी पशु के मुख में कर डालने लगेगा- 'मुझे यह बाहु धो लेने दे। यह कितनी मलिन हो गयी है। तुझे गोचारण के लिए गायें पुकारने लगी हैं।' सचमुच अब गायों ने, वृषभों ने एक साथ गोष्ठों में-से हुंकार करना प्रारम्भ कर दिया है। गोपों को भी लगता है कि बालक पहिले पशु लेकर वन में चले जायँ, तब मृत असुर घोटक के शव की व्यवस्था करना ठीक होगा। सब अपने गोष्ठों के द्वार उन्मुक्त करने चले गये हैं। गोपाल को भी वन में जाने की शीघ्रता है। मैया इनकी वाम भुजा धोकर, पोंछकर भली प्रकार देखने में लगी है और ये उसे छुड़ाकर लकुट लेकर वन में सखाओं के साथ जाने को आतुर हैं। |
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