नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
74. भगवान शिव-महारास
सहसा वंशी ध्वनि मन्द हुई और विरमित हो गयी। नृत्य में चंचल थिरकते श्रान्त पदपद्म रुके। मध्य कर्णिका पर महाभाव ने रसराज को अंकमाल दी। श्यामसुन्दर उतने स्वरूप हो गये जितनी सखियाँ थीं। सबने उनको अपने पार्श्व में पाया। किसी ने नृत्य श्रान्त होकर इनको आलिंगन बद्ध कर लिया। किसी ने कण्ठ में पड़ी भुजा को चुम्बन दिया। मध्य कर्णिका पर युगल की कपोल पल्ली मिली और परस्पर ताम्बूल विनिमय हुआ। अब रस-राज की सरक्रीड़ा- गोपी-वल्लभ ने प्रत्येक को परमानन्द प्रदान किया। उनकी अलकें सुलझायीं, उनके कपोल धर्म पोंछें अपने पटुके से। अत्यन्त क्रीड़ा श्रान्त सखियों को लेकर वनमाली ने यमुना के प्रवाह में प्रवेश किया और जल विहार चलने लगा। शत सहस्र शतदलारुण हाथों से सखियाँ व्रजराजकुमार पर जल उछालने लगीं और ये भी उनके मुखों पर जल के छींटे मारने लगे। जल क्रीड़ा के मध्य कौन उन्हें अपने भुजापाश में आबद्ध कर लेगी और ये किसे सम्मुख या पीछे से पकड़ लेंगे कोई क्रम नहीं। देर तक जलक्रीड़ा करके निकले। योगमाया ने वस्त्र प्रस्तुत कर दिये। आर्द्र वस्त्र विसर्जित हुए; किंतु विन्दु टपकाती अलकें, भीगे शरीर। व्रजवल्लभ सबको लेकर पुलिन पर, कुंजों में विचरण करते विहार करने लगे। इनका यह विहार- मैं कामारि देखता हूँ कि विकार का कहीं संस्पर्श भी नहीं। शरीर तो दूर- किसी मानस में छाया तक नहीं। जैसे शिशु दर्पण में पड़े अपने प्रतिबिम्ब के साथ क्रीड़ा करे- केवल क्रीड़ा। परमप्रेम का दिव्य विलास। गोप-किशोरियों में केवल एक उत्कण्ठा- श्यामसुन्दर को अधिक से अधिक आनन्द जैसे प्राप्त हो, वह-वही चेष्टा, वही क्रिया और ये आनन्दघन इन सबको आनन्दित करने में लगे हैं। ये जैसे प्रसन्न हों, ये जैसे आनन्दित हों वह श्यासुन्दर की क्रिया। अपने सुख, अपने आनन्द की तो कल्पना ही किसी मानस में नहीं आती। अपने आनन्द की उत्कण्ठा केवल मेरे मन में उठी। मैं अपने को और अधिक रोक नहीं सका। मेरी आतुरता-व्याकुलता देखकर अदृश्य योगमाया कात्यायनी ने सस्मित स्वीकार कर लिया मेरा उस दिव्यधरा पर रासमण्डल में प्रवेश। मैं अपने स्त्री शरीर से पहुँच गया और सबसे बहिःवृत्त की सखियों के समुदाय में सम्मिलित हो गया। |
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