नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
74. भगवान शिव-महारास
सुर विमानों पर बैठे सुरांगनाओं के साथ आ गये थे। उन्होंने सुमन वर्षा प्रारम्भ कर दी। गंधर्व तथा किन्नरों ने वाद्य सम्हाले। अप्सराओं ने भी नृत्य के अनुकरण का प्रयत्न किया। कोई आशंका नहीं थीं कि इनमें कोई मुझे स्त्री-शरीर में पहिचान लेगा। नृत्य में वेग आता गया। रसराज ने अनेक रूप धारण कर लिये। जितनी सखियाँ थीं, उनके आधे रूप। दो गोपी के मध्य एक श्यामसुन्दर। दोनों के कन्धों पर उनकी भुजाएँ और दोनों ओर से सखियों के स्वर्णसुन्दर बाहु उनके स्कन्धों पर। परस्पर भी एक-एक बाहु उन्होंने पार्श्वस्थ सखी के स्कन्ध पर रख लिया। श्रीकृष्णचन्द्र का स्पर्श, सन्निधि मिलते ही गोपियों की पद-गति तीव्र से तीव्रतम होती चली गयी। मध्य में रसशेखर श्रीवृषभानु-नन्दिनी के साथ ठुमुक रहे थे और वंशी बजाने के साथ गा भी रहे थे। सुरों के कर स्तम्भित हो गये। गन्धर्व-किन्नरों के वाद्य साथ नहीं दे सके। अप्सराएँ लज्जित, थकित होकर स्तब्ध खड़ी रह गयीं। उनके और सुरांगनाओं के वस्त्र श्लथिक होने लगे शतिशय विमुग्ध होने के कारण। श्रीरासेश्वर का सप्तम स्वर उठा और गूँजता चला गया। यह सबसे अमिश्र स्वर माधुरी-सृष्टि ने कभी यह स्वर सौष्ठव सोचा भी नहीं होगा। रसराज झूम उठे- 'साधु! साधु!' और स्वयं उसी स्वर को ध्रुव बनाकर बार-बार दुहराने लगे। उल्लसित होकर बार-बार आलिंगन दान किया। इन्होंने अपनी परम प्रेयसि को। इस संगीत का- इस नृत्य का साथ अप्सराएँ, गन्धर्वादि के वाद्य कैसे देते। गगन में तो सब स्तब्ध-मूर्ति के समान जड़ हो गये थे। केवल नीचे व्रजसुन्दरियों के नुपूर किंकिणी, कंकणों की सुमधुर रुनझुन- ललित क्वणन उनके संगीत का साथ दे रहा था। भ्रमरों की अवलि अवश्य अपनी गुञ्जार से साथ दे रही थी। नृत्य में अधिक और अधिक वेग आया। ब्रजसुन्दरियों का संगीत शांत हो गया, केवल नृत्य। उनके आभूषणों का क्वणन और भ्रमरों की गुञ्जार। विश्वविमोहिनी मुरली की ध्वनि नृत्य को तीव्रतम करती जा रही थी। लगता था कि गोप-किशोरियों की क्षीण कटि मध्य से अब टूटी, अब टूटी। उनकी वेणियाँ खुल गयीं। आपाद लुलायित केशराशि पृष्ठदेश पर लहराने लगी। वेणियों में ग्रथित मल्लिका मालाएँ, सुमन कब के गिर चुके। कंचुकी के वस्त्र खुल गिरे और साड़ियाँ अस्त-व्यस्त उड़ने लगीं। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज