नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
74. भगवान शिव-महारास
मैं पकड़ लिया गया। संकोच सहित मैंने अपना स्त्री शरीर छोड़ा और पुरुष रूप धारण किया; क्योंकि अब और उपाय नहीं था। नन्दनन्दन ने समस्त गोपियों के साथ मेरी पूजा की। उस रात्रि में भी वित्वपत्र, अर्कपुष्प, मल्लिका मालाएँ और सुन्दर उत्फुल्ल सरोजों से मुझे आपाद मस्तक अलंकृत कर दिया। अन्त में बोले- 'अब आप गोपेश्वर हो गये। इस वृन्दावन में ही श्रीविग्रह रूप में नित्य निवास करें। हम सबको आपका शाश्वत संरक्षण एवं सान्निध्य प्राप्त हो।' मैं इन नवघनसुन्दर के स्नेह से विह्वल बोल नहीं पा रहा था। इन्होंने हँसते हुए हाथ जोड़कर कहा- 'आप आशुतोष कब से कृपण हो गये? अब तो ओम् कहिये।' 'ओम्! एवमस्तु! ओम्!' मैं बोल उठा- 'देव, आपकी सन्निधि प्राप्त हो तो उसका परित्याग कर दूँ, भूतनाथ होने पर भी इतना उन्मत्त तो नहीं हूँ।' ब्राह्मी निशा व्यतीत हो रही थी। उषःकाल आसन्न था। रसिकशेखर ने सखियों को यह निकुञ्ज लीला समाप्त करके स्वगृह लौटने को कहा। कोई इनके श्रीचरणों के समीप से जाना नहीं चाहती थी। बहुत ही विवशतापूर्वक सब लौटीं। यह लौटना सबका रस-परिपाक मात्र ही तो है। रास की यह नित्य-लीला तो शाश्वत है। यह कहाँ संसार में आविर्भूत अबतार लीला है कि विरमित होगी। यह तो सदा चलती है और इसमें यह विराम रसपरिपुष्ट ही करता है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज