नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. चन्द्रावली-रास में मान-भंग
हम सब और क्या कर सकती थीं। सब सिमटकर बैठ गयीं और एक साथ पुकारने लगीं। सृष्टिकर्त्ता ने हम स्त्रियों के रुदन को भी संगीत बना दिया है, अतः कोई हमारे उस समवेत क्रन्दन को गायन कहे तो मैं आपत्ति क्यों करूँ। हमें तो पुकारना था- हम पुकार रही थीं। प्रार्थना कर रही थीं और जो अपना सर्वस्व है, उसे उपालम्भ नहीं देंगी तो किसे देंगी? हमने अपना घर-द्वार स्वजन-सम्बन्धी, लोक-परलोक सब छोड़ा उसके लिए और वह छलिया इतना निष्करुण निकला कि हमें रात्रि में वन में असहाय छोड़कर छिप गयाǃ हमको उसने दावाग्नि से, वर्षा से, विष से कालिय के और बार-बार असुरों से इसीलिए बचाया था कि हम उसके लिये तड़प-तड़पकर प्राण त्याग करें? उसकी वह विशाल भुजाएँ, प्रशस्त वक्षस्थल, अलकावृत्त स्मितशोभितानन देख-देखकर हम उसकी निःशुल्क दासियाँ हो गयीं और हमें वंशी ध्वनि से बुलाकर, हास्य-विनोद से अपनी ओर आकर्षित करके भी वह अपने अधरामृत का एक सीकर प्रदान करने में कृपण हो गया? ऋषि-मुनि कहते हैं कि वह करुणार्णव है। वह व्रज-जनों की विपत्ती दूर करने अवतीर्ण हुआ है इतना निष्ठुर- इतना क्रूर हो उठा है हम बालिकाओं पर कि हम उसकी एक झाँकी के लिए तरस रही हैं, उसके वियोग की वह्नि में भस्म हुई जा रही हैं और वह छिपा है? सब सह लेतीं हम; किंतु यह कैसे सहा जाय कि उसके जिन सुकुमार चरणों को अपने कठोर वक्ष पर धरते भी हमें संकोच होता है, लगता है कि हमारे वक्षोजों के स्पर्श से उसके पद पीड़ित न हों, उन्हीं चरणों से वह इस कुश, कण्टक कंकड़ियों से भरे वन के अन्धकार में भटक रहा है। कितनी व्यथा, कितनी पीड़ा पाते होंगे उसके वे कोमल पद-कमल! यह पीड़ा क्या सहन करने योग्य है? हम सब यह सोचने में- पुकारकर गाकर कहने में ऐसी तल्लीन हुईं कि देखा ही नहीं, वह किधर से आया। अपना पटुका दोनों करों से पकड़े वह श्यामसुन्दर हमारे मध्य सहसा आ खड़ा हुआ मुस्कराता। वह उसकी शोभा- कोटि-कोटि मन्मथ उसके एक-एक रोम पर वारित कर दूँ। मैंने ही राधा के कान में कहा- 'बहिन! अब यहाँ रुकना उचित नहीं। इस वृक्ष-लताओं की सघनता से दूर पुलिन पर चल। इस छलिया का विश्वास नहीं। यह फिर छिप जायगा।' राधा उठ खड़ी हुई तो श्यामसुन्दर भी साथ चलता ही। हम सब उसे घेरे कालिन्दी पुलिन पर आ गयीं। अब कहीं कोई छिपने का स्थान नहीं। चारों ओर प्रशस्त पुलिन। हम सबने अपने उत्तरीय उतारे और एक पर एक बिछा दिये। नन्दनन्दन हँसकर बैठ गया सबसे ऊपर बिछे राधा के नीलाम्बर पर। |
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