नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. चन्द्रावली-रास में मान-भंग
'क्या पूछोगी तुम? पूछो!' हँसकर ही बोले। 'कोई प्रेम करने पर प्रेम करते हैं। कोई बिना प्रेम किये भी प्रेम करते हैं। कोई प्रेम करने पर भी प्रेम नहीं करते। इनकी स्थिति क्या है?' सभी सखियों ने मेरी ओर स्मित पूर्वक देखा। 'जो प्रेम करने पर प्रेम करते हैं, वे प्रेमी ही नहीं हैं। वे तो स्वार्थी हैं। उनका प्रेम भी परस्पर स्वार्थ व्यापार है। विशुद्ध प्रीति कहाँ उनमें।' हमारा वनमाली इतना गम्भीर बनकर उत्तर देगा, ऐसी आशा मुझे नहीं थी। 'जो प्रेम न करने पर भी प्रेम करते हैं, वे माता-पिता के समान आदरणीय हैं। वे करुणामय परमादर भाजन हैं। उनकी पुनीत प्रीति का प्रतिदान न वे चाहते, न उन्हें दिया जा सकता। ऐसा प्रेम पाना प्राणी का परम सोभाग्य।' श्यामसुन्दर का स्वर श्रद्धा समन्वित हो गया। जो प्रेम करने पर भी प्रेम नहीं करते, उनमें दो प्रकार के लोग होते हैं। एक आत्माराम आप्त-काम महापुरुष। इनको सब अपने स्वरूप ही प्रतीत होते हैं। इनसे प्रेम करके प्राणी स्वयं पवित्र हो जाता है। इनसे प्रीति जीवन मरण से मुक्त कर देती हैं; किंतु ये महापुरुष किसी से प्रेम नहीं करते। वे अपने स्वरूप में ही तन्मय रहते हैं।' बड़ी गम्भीरतापूर्वक यह बात कही गयी। 'दूसरे जो प्रेम करने पर भी प्रेम नहीं करते वे कृतघ्न, भारी द्रोही कुपुरुष हैं। जो परम पवित्र प्रेम का भी सत्कार न कर सके, वह यदि आत्माराम महापुरुष नहीं है तो अवश्य वज्र हृदय कृतघ्न कुपुरुष है। हम सब यह सुनकर हँस पड़ीं। मैंने राधा की ओर देख लिया। वह भी हँस पड़ी। 'सखियो! मैं तुम्हारे हास्य का अर्थ समझता हूँ।' श्यामसुन्दर गम्भीर बने रहे- 'मैं तुम सबके प्रेम को न समझता होऊँ, ऐसा भी नहीं है; किंतु प्रेम करना तो व्यापार है। मैं चाहता हूँ तुम्हारा प्रेम अनन्त अपार बढ़ता रहे और सदा तुम्हारा ऋणी बना रहूँ। मैं तुमसे छिप गया, यह सोचकर कि इससे तुम्हारा प्रेम बढ़ेगा। निर्धन को धन मिल जाय और मिलकर फिर नष्ट हो जाय तो जैसे उसकी धन लिप्सा का पार नहीं रहता, वैसे ही मेरे वियुक्त होने से तुम्हारी प्रीति पराकाष्ठाहीन बढ़ती जायगी, यह मैंने सोचा था।' 'तुम सब लोक-परलोक, स्वजन-सम्बन्धी का मोह, सब त्यागकर मेरे समीप आयीं। महामुनीन्द्र भी समस्त मोह इस प्रकार त्याग नहीं पाते। मैं चाहूँ तो भी ब्रह्मा की आयु लेकर भी तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान कहाँ दे सकता हूँ। तुम तो अपनी ही उदारता से मुझे अपनाये रहो। मैं तुम्हारा-तुम सबका प्रेमक्रीत सेवक।' वे जाने क्या-क्या कहने वाले थे। मैंने इनके मुख पर हाथ धर दिया। राधा ने प्रशंसा भरी दृष्टी से देखा मेरी ओर। इनकी ये बातें- ये हमारे जीवन धन, हमारे सर्वस्व! ये ऐसी बातें कहें- इनकी ये सुधा सनी बातें। हम सब इनकी चरण किंकरियाँ विमुग्ध सुनती रहीं इनके श्रीमुख को अपलक देखती। |
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