नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. चन्द्रावली-रास में मान-भंग
कोई अपना उत्तरीय उठाये पुकार रही थी- 'गोपो! वर्षा, वायु से निर्भय हो जाओ। मैंने गिरिराज उठाकर इसका उपाय कर दिया है।' कोई पूतना बन गयी थी और दूसरी उसका स्तनपान करने लगी थी। कोई ऊखल बनी बैठी थी और उसके साथ अपने को अपने ही उत्तरीय से बाँधकर कोई भय का नाट्य करने लगी थी। कोई उन हृदयहारी के समान ललित गति से झूमती चल रही थी और कोई ललित त्रिभंगि से खड़ी हो गयी थी किसी लुघ काष्ठ की मुरली बनाकर। जिनके अन्तर को मयूर मुकुटी की जिस लीला ने अधिक प्रभावित किया था, वे सब उसी लीला के साथ तादात्म्यापन्न हो गयी थी। मुझे सखियों की यह उन्मादावस्था देखकर बहुत दुःख हुआ। मेरे ही अपराध से मेरे ही अभिमान से ये प्रिय-वियुक्ता हुईं। पृथ्वी फट जाती और मैं उसमें समा जाती। मैं पृथ्वी पर सिर पटकने जा रही थी। मेरे सिर पर से सखी ने अपने पद हटा लिये थे; किंतु तभी दयामयी धरादेवी ने दया की। मैंने देखा कि जहाँ मैं मस्तक पटकने जा रही हूँ, वहीं उनके चरण-चिह्न हैं। यव, ध्वज, अंकुश, वज्र, कमल, छत्र, चक्र, स्वस्तिक, बिन्दु, अष्टकोण, शंख, घट, मत्स्य, त्रिकोण, बाण, ऊर्ध्वरेखा, धनुष, गोखुर और अर्धचन्द्र- सभी चिह्न तो सुस्पष्ट हैं। श्रीनन्दनन्दन के इन चरण-चिह्नों को भी क्या पहिचान की अपेक्षा है। मैं आँख फाड़कर एक-एक चिह्न देखती रही। फिर मैंने पुकारा- 'सखियो यह चरण-चिह्न है उस चतुर चूड़ामणि छलिया का। वह इधर आया है।' सब दौड़ आयीं और झुक गयीं। ये चरण-चिह्न ही हमारे धन थे, आधार थे। हम इनको स्पर्श करके मिटाने का साहस नहीं कर सकती थीं। इन चिह्नों की रज उठाकर नेत्र में, वक्ष पर लगा लेने की कितनी बड़ी लालसा मन में उठी; किंतु इनको मिटाकर हम कहाँ की होंगी? सावधानीपूर्वक चिह्नों को सुरक्षित रखते हम उनके सहारे बढ़ीं। कुछ पद बढ़ते ही ललिता ने पुकारा- 'मेरी सखी को वे साथ ले गये हैं!' मैं समीप जाकर झुक गयी चिह्न देखने। कुछ छोटे चरण-चिह्न थे उन पहिले देखे पद-चिह्नों के साथ। इन पद-चिह्नों में सुस्पष्ट ध्वज, पद्म, छत्र, यव, पर्वत, शक्ति, सिंहासन, रथ, ऊर्ध्व रेखा, चक्र, चन्द्र, अंकुश, दो विन्दु, लता, गदा, मत्स्य, शंख, षटकोण दीख रहे थे। ये श्रीराधा के चरणचिह्न हैं, यह हममें-से प्रत्येक पहिचानती हैं। 'धन्य हैं कीर्त्तिकुमारी। प्रियतम की वास्तविक प्रेमभाजना हैं ये। इन्होंने पता नहीं कितनी आराधना की होगी कि हम सबको त्यागकर ये श्यामसुन्दर इनको अकेले ले गये हैं।' मुझमें स्पर्धा, ईर्ष्या का नाम नहीं था। मैं अपना हृदय चीरकर दिखा सकती थी कि मुझे कितना सन्तोष, कितना आनन्द हुआ ये दूसरे पद-चिह्न प्राप्त करके। मुझे अपना वियोग विस्मृत हो गया। वे ऐकाकी नहीं है, आनन्द में हैं और उनकी परम प्रेयसी उनको सुखी करने के साथ हैं, यह स्पष्ट होते ही मेरी समस्त व्याकुलता समाप्त हो गयी। |
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