नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. चन्द्रावली-रास में मान-भंग
मैं सखियों में अपने को श्रेष्ठ कितना भी प्रकट करूँ। इतनी अज्ञ नहीं हूँ कि यह भी न जानती होऊँ कि मेरी सीमा क्या है। लेकिन राधा को क्या कहूँ, यह इतनी भोली क्यों हैं? मुझसे मिलती है तो इतना स्नेह, सम्मान देती है जैसे यह स्वयं मेरी अनुजा है। यह समझती क्यों नहीं कि मैं सबके सम्मुख इसकी अवज्ञा करती हूँ, उपेक्षा करती हूँ। दर्पिता दिखलाती हूँ अपने को। मैं जो रूप, गुण, शील, सुषमा, सौकुमार्य में इसकी किसी सेविका के भी समीप बैठने योग्य नहीं हूँ, अपने को इससे श्रेष्ठा दिखलाती हूँ और यह है कि मुझे अत्यन्त आदर से अंकमाल देती है। अपने से अधिक उत्तमा मानती है। मैं इसके शील-विनय का सम्मान करूँ तो कहाँ जाऊँ? वे इसके हैं, इसी के वश में हैं और यह उनका दोष नहीं है। यह तो राधा के अनन्त सौन्दर्य का, शील का प्रभाव है, पर मैं प्रगल्भा धृष्टा न बनूँ तो मुझको कभी उनका समीप्य प्राप्त होगा? मैं ऐसी भी हूँ कि वे मेरी ओर आँख उठाकर भी देखें? वे राधा को लेकर वन में चले गये हम सबको त्यागकर। यह वे न करते तो निष्ठुर-निर्दय सिद्ध होते। राधा को कहाँ कभी अपना सुख स्मरण आता है। यह तो उनकी सन्निधि भी सखियों को देकर सुप्रसन्न होती है। इसके सुख, इसके सम्मान की रक्षा वे नहीं करेंगे तो करेगा कौन? वे इसके साथ ही परमाह्लाद पाते हैं। यह रात्रि है। सघन वन है और इसमें कण्टक हैं, कुश हैं, पता नहीं कितने काले वृश्चिक, काल भुजंग कहाँ छिपे होंगे। वे सब मुझे काटें- मुझे दंशित करें! वे हृदय-धन और उनको आनन्द दे सकने में समर्थ राधा सुरक्षित रहें! सुरक्षित रहें ये सब सखियाँ- इसलिये तो मैं इन सबके आगे चल रही हूँ। इस अभाग्य में भी मुझे सूझता है कि आज राधा की भी सखियाँ मेरी अनुगामिनी बन गयी हैं। ये कितनी सीधी हैं सब! अपनी यूथेश्वरी से पृथक पकड़कर कितनी असहाय हो रही हैं? मेरा दर्प, मेरा अभिमान ही तो मेरे यूथ की सखियों में प्रतिफलित होता है। आज मैं इनका मुख कैसे पकड़ सकती हूँ, ये मुझे सुनाकर मुझे प्रसन्न करने के लिए जो कहती है, उसे चुपचाप सुनने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं। ये ईर्ष्या के कारण कैसे-कैसे अनुमान लगाने लगी हैं। एक कहती हैं- 'इस वधू के चरणचिह्न इतने समीप हैं उनके पद चिह्नों के कि स्पष्ट हो जाता है, इसके कन्धे पर भुजा रखे वे गये हैं और यह भी उनके कन्धे पर बाहु रखे उनसे सटी गयी है।' |
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