नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
64. बहिन अजया-गोवर्धन-पूजन
'तू चल! मैं भी चलती हूँ।' राधा ने अपनी सखी को मना कर दिया। मुझे ललिता की बात बुरी लगी थी। किसी ने भी तो कुछ नहीं कहा। हम सबने पूजन किया। राधा ने कहा भी ललिता को- 'तू अजया को कभी रोकना मत किसी बात को। इसकी इच्छा के साथ मेरी अनुमती है।' 'ओह! राधा क्रोध भी कर सकती है, यह मैंने आज जाना। मुझे ललिता का उतरा मुख देखकर उस पर दया आ गयी। सबसे आनन्द का पूजन हुआ गिरिराज का। इसमें तो कन्हैया भैया ही मानों पुरोहित बन गया। मैं तो गिन नहीं पाती, विशाखा कहती थी कि चौंसठ सोने के कटोरों में गंगा-यमुना का जल तुलसी डालकर पाँच पांक्तियों में रखा गया है। सब पूजन वैसे हुआ जैसे नारायण भगवान की बड़ी पूजा होती है। इसके अनन्तर सब आये पदार्थ जब तुलसी डालकर भोग लगाने को रखे गये तो गिरिराज भगवान साक्षात प्रगट हो गये। वे माँग-माँगकर खाने लगे। गोप दौड़-दौड़कर थाल पर थाल लाकर कन्हैया के हाथ में देते थे और उससे लेकर पूरा थाल गिरिराज भगवान एक बार ही मुख में डाल लेते थे। देवता ऐसा हो, भला वह खम्भा क्या खाता, जिसे कल व्रजराज बाबा ने गाड़ा था। राधा ने हँसकर कहा- 'अजया! देख तो सही, यह बड़ा भारी देवता तेरा भैया ही है या नहीं?' 'उसके तो चार हाथ हैं!' मैंने कह तो दिया; पर चार हाथ न होते दो होते, इतना बड़ा पहाड़ जितना ऊँचा न होता तो यह सचमुच मेरे भैया कन्हैया ही जैसा तो है। वैसे ही नेत्र, अलकें, भुजाएँ, वस्त्र, आभूषण। मुझे साहस आ गया। एक बड़ा मोदक मैंने दोनों हाथ में उठाया और दौड़ी चली गयी। देवता ने मेरे हाथ से हँसकर मोदक लिया और मुँह में धर लिया। मैं लौटने लगी तो बोला- 'बहिनǃ' प्रसाद लेती जा।' 'वह भी मेरा भैया है। मुझे बहिन कहता है।' मैंने देवता का दिया मोदक लाकर राधा को दिया। वह राधा ने फोड़ा तो उसमें-से दो कुण्डल निकले। ऐसे रत्न-कुण्डल कि उनकी चमक पर नेत्र नहीं टिकते थे। सब लड़कियाँ देखती रह गयीं। राधा ने उसी समय मेरे कानों के कुण्डल निकालकर उन्हें पहिना दिया। |
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