गीता माता -महात्मा गांधी
अनासक्तियोग
तीसरा अध्याय
कर्मयोग
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:। जो यज्ञ से उत्पन्न हुआ खाने वाले हैं, वे सब पापों से छूट जाते हैं। जो अपने लिए ही पकाते हैं, वे पाप खाते हैं। अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:। अन्न में से भूत मात्र उत्पन्न होते हैं। अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से होता है। कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्मक्षरसमुद्भवम्। तू जाने ले कि कर्म प्रकृति से उत्पन्न होता है, प्रकृति अक्षर-ब्रह्म से उत्पन्न होती है और इसलिए सर्वव्यापक ब्रह्म सदा यज्ञ में विद्यमान है। एवं प्रवतिंत चक्रं नानुवर्तयतीह य:। इस प्रकार प्रवर्तित चक्र का जो अनुसरण नहीं करता, वह मनुष्य अपना जीवन पापमय बनाता है, इंद्रिय सुखों में फंसा रहता है और हे पार्थ! वह व्यर्थ जीता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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