ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी के धर्म का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 46 में ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी के धर्म का वर्णन हुआ है।[1]

ब्रह्मा द्वारा ब्रह्मचारी के धर्म का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षिगण! इस प्रकार इस पूर्वोक्त मार्ग के अनुसार गृहस्थ को यथावत आचरण करना चाहिये एवं यथाशक्ति अध्ययन करते हुए ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले पुरुष को चाहिये कि वह अपने धर्म में तत्पर रहे, विद्वान बने, सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने अधीन रखे, मुनि व्रत का पालन करे, गुरु का प्रिय और हित करने में लगा रहे, सत्य बोले तथा धर्म परायण एवं पवित्र रहे। गुरु की आज्ञा लेकर भोजन करे। भोजन के समय अन्न की निन्दा न करे। भिक्षा के अन्न को हविष्य मानकर ग्रहण करे। एक स्थान पर रहे। एक आसन से बैठे और नियत समय में भ्रमण करे। पवित्र और एकाग्रचित्त होकर दोनों समय अग्नि में हवन करे। सदा बेल या पलाश का दण्ड लिये रहे। रेशमी अथवा सूती वस्त्र या मृगचर्म धारण करे। अथवा ब्राह्मण के लिये सारा वस्त्र गेरुए रंग का होना चाहिये। ब्रह्मचारी मूँज की मेखला पहने, जटा धारण करे, प्रतिदिन स्नान करे, यज्ञोपवतीत पहने, वेद के स्वाध्याय में लगा रहे तथा लोभ हीन होकर नियमपूर्वक व्रत का पालन करे। जो ब्रह्मचारी सदा नियम परायण होकर श्रद्धा के साथ शुद्ध जल से नित्य देवताओं का तर्पण करता है, उसक सर्वत्र प्रशंसा होती है।

वानप्रस्थी धर्म

इसी प्रकार आगे बतलाये जाने वाले उत्तम गुणों से युकत जितेन्द्रिय वानप्रस्थी पुरुष भी उत्तम लोकों पर विजय पाता है। वह उत्तम स्थान को पाकर फिर इस संसार में जन्म धारण नहीं करता। वानप्रस्थ मुनि को सब प्रकार के संस्कारों के द्वारा शुद्ध होकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए घर की ममता त्यागकर गाँव से बाहर निकलकर वन में निवास करना चाहिये। वह मृगचर्म अथवा वल्कल वस्त्र पहने। प्रात: और सायंकाल के समय स्नान करे। सदा वन में ही रहे। गाँव में फिर कभी प्रवेश न करे। अतिथि को आश्रम दे और समय पर उनका सत्कार करे। जंगली फल, मूल, पत्ता अथवा सावाँ खाकर जीवन निर्वाह करे। बहते हुए जल, वायु आदि सब वन की वस्तुओं का ही सेवन करे। अपने व्रत के अनुसार सदा सावधान रहकर क्रमश: उपर्युकत वस्तुओं का आहार करे। यदि कोई अतिथि आ जाय तो फल मूल की भिक्षा देकर उसका सत्कार करे। कभी आलस्य न करे। जो कुछ भोजन अपने पास उपस्थित हो, उसी में से अतिथि को भिक्षा दे। नित्य प्रति पहले देवता और अतिथियों को भोजन दे, उसके बाद मौन होकर स्वयं अन्न ग्रहण करे। मन में किसी के साथ स्पर्धा न रखे, हल का भोजन करे, देवताओं का सहारा ले। इन्द्रियों का संयम करे, सबके साथ मित्रता का बर्ताव करे, क्षमाशील बने और दाढ़ी मूँछ तथा सिर के बालों को धारण किये रहे। समय पर अग्निहोत्र और वेदों का स्वाध्याय करे तथा सत्य धर्म का पालन करे। शरीर को सदा पवित्र रखे। धर्म पालन में कुशलता प्राप्त करे। सदा वन में रहकर चित्त को एकाग्र किये रहे। इस प्रकार उत्तम धर्मों को पालन करने वाला जितेन्द्रिय वानप्रस्थी स्वर्ग पर विजय पाता है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ कोई भी क्यों न हो, जो मोक्ष पाना चाहता हो, उसे उत्तम वृत्ति का आश्रय लेना चाहिये।[1](वान प्रस्थ की अवधि पूरी करके) सम्पूर्ण भूतों को अभय दान देकर कर्म त्याग रूप संन्यास धर्म का पालन करे। सब प्राणियों के सुख में सुख माने। सबके साथ मित्रता रखे। समस्त इन्द्रियों का संयम और मुनि वृत्ति का पालन करे। बिना याचना किये, बिना संकल्प के दैवात जो अन्न प्राप्त हो जाय, उस भिक्षा से ही जीवन निर्वाह करे। प्रात: काल का नित्यकर्म करने के बाद जब गृहस्थों के यहाँ रसोई घर से धुआँ निकलना बंद हो जाय, घर के सब लोग खा पी चुकें और बर्तन धो-माजकर रख दिये गये हों, उस समय मोक्ष धर्म के ज्ञाता संन्यासी को भिक्षा लेने की इच्छा करनी चाहिये। भिक्षा मिल जाने पर हर्ष और न मिलने पर विषाद न करे। (लोभवश) बहुत अधिक भिक्षा का संग्रह न करे। जितने से प्राण यात्रा का निर्वाह हो उतनी ही भिक्षा लेनी चाहिये।[2]

संन्यासी के धर्म का वर्णन

संन्यासी जीवन निर्वाह के ही लिये भिक्षा माँगे। उचित समय तक उसके मिलने की बाट देखे। चित्त को एकाग्र किये रहे। साधारण वस्तुओं की प्राप्ति की भी इच्छा न करे। जहाँ अधिक सम्मान होता हो, वहाँ भोजन न करे। मान प्रतिष्ठान के लाभ से संन्यासी को घृणा करनी चाहिये। वह खाये हुए तिक्त, कसैले तथा कड़वे अन्न का स्वाद न ले। भोजन करते समय मधुर रस का भी आस्वादन न करे। केवल जीवन निर्वाह के उद्देश्य से प्राण धारण मात्र के लिये उपयोगी अन्न का आहार करे। मोक्ष के तत्त्व को जानने वाला संन्यासी दूसरे प्राणियों की जीविका में बाधा पहुँचाये बिना ही यदि भिक्ष मिल जाती हो तभी उसे स्वीकार करे। भिक्षा माँगते समय दाता के द्वारा दिये जाने वाले अन्न के सिवा दूसरा अन्न लेने की कदापि इच्छा न करे। उसे अपने धर्म का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये। रजोगुण से रहित होकर निर्जन स्थान में विचरते हरना चाहिये। रता को सोने के लिये सूने घर, जंगल, वृक्ष की जड़, नदी के किनारे अथवा पर्वत की गुफा का आश्रय लेना चाहिये। ग्रीष्मकाल में गाँव में एक रात से अधिक नहीं रहना चाहिये, किंतु वर्षाकाल में किसी एक ही स्थान पर रहना उचित हैं। जब तक सूर्य का प्रकाश रहे तभी तक संन्यासी के लिये रास्ता चलना उचित है। वह कीड़े की तरह धीरे-धीरे समूची पृथ्वी पर विचरता रहे और यात्रा के समय जीवों पर दया करके पृथ्वी को अच्छी तरह देख भालकर आगे पाँव रखे। किसी प्रकार का संग्रह न करे और कहीं भी आसक्तिपूर्वक निवास न करे। मोक्ष धर्म के ज्ञाता संन्यासी को उचित है कि सदा पवित्र जल से काम ले। प्रतिदिन तुरंत निकाले हुए जल से स्नान करे (बहुत पहले के भरे हुए जल से नहीं)। अहिंसा, ब्रह्मचर्य, सत्य, सरलता, क्रोध का अभाव, दोष दृष्टि का त्याग, इन्द्रिय संयम और चुगली न खाना- इन आठ व्रतों का सदा सावधानी के साथ पालन करे। इन्द्रियों को वश में रखे। उसे सदा पाप, शठता और कुटिलता से रहित होकर बर्ताव करना चाहिये। नित्यप्रति जो अन्न अपने आप प्राप्त हो जाय, उसको ग्रहण करना चाहिये, किंतु उसके लिये भी मन में इच्छा नहीं रखनी चाहिए। प्राण यात्रा का निर्वाह करने के लिये जितना अन्न आवश्यक है, उतना ही ग्रहण करे। धर्मत: प्राप्त हुए अन्न का ही आहार करे। मनमाना भोजन न करे।[2]खोने के लिये अन्न और शरीर ढकने के लिये वस्त्र के सिवा और किसी वस्तु का संग्रह न करे। भिक्षा भी, जितनी भोजन के लिये आवश्यक हो, उतनी ही ग्रहण करे, उससे अधिक नहीं।[3]

बुद्धिमान संन्यासी को चाहिये कि दूसरों के लिये भिक्षा न माँगे तथा सब प्राणियों के लिये दया भाव से संविभाग पूर्वक कभी कुछ देने की इच्छा भी न करे। दूसरों के अधिकार का अपहरण न करे। बिना प्रार्थना के किसी की कोई वस्तु स्वीकार न करे। किसी अच्छी वस्तु का उपभोग करके फिर उसके लिये लालायित न रहे। मिट्टी, जल, अन्न, पत्र, पुष्प और फल- ये वस्तुएँ यदि किसी के अधिकार में न हों तो आवश्यकता पड़ने पर क्रियाशील संन्यासी इन्हें काम में ला सकता है। वह शिल्पकारी करके जीविका न चलावे, सवर्ण की इच्छा न करे। किसी से द्वेष न करे और उपदेशक न बने तथा संग्रह रहित रहे। श्रद्धा से प्राप्त हुए पवित्र अन्न का आहार करे। मन में कोई निमित्त न रखे। सबके साथ अमृत के समान मधुर बर्ताव करे, कहीं भी आसक्त न हो और किसी भी प्राणी के साथ परिचय न बढ़ावे। जितने भी कामना और हिंसा से युक्त कर्म हैं, उन सबका एवं लौकिक कर्मों का स्वयं अनुष्ठान करे और न दूसरों से करावे। सब प्रकार के पदार्थों की आसक्ति का उल्लंघन करके थोड़े में संतुष्ट हो सब और विचरता रहे। स्थावर ओर जंगम सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखे। किसी दूसरे प्राणी को उद्वेग में न डाले और स्वयं भी किसी से उद्विग्न न हो। जो सब प्राणियों का विश्वास पात्र बन जाता है, वह सबसे श्रेष्ठ और मोक्ष धर्म का ज्ञाता कहलाता है। संन्यासी को उचित है कि भविष्य के लिये विचार न करे, बीती हुई घटना का चिन्तन न करे और वर्तमान की भी उपेक्षा कर दे। केवल काल की प्रतीक्षा करता हुआ चित्तवृत्तियों का समाधान करता रहे। नेत्र से, मन से और वाणी से कहीं भी दोषदृष्टि न करे। सबके सामने या दूसरों की आँख बचाकर कोई बुराई न करे। जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटा ले। इन्द्रिय, मन और बुद्धि को दुर्बल करके निश्चेष्ट हो जाय। सम्पूर्ण तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करे। द्वन्द्वों से प्रभावित न हो, किसी के सामने माथा न टेके। स्वाहाकार (अग्निहोत्र आदि) का परित्याग करे। ममता और अहंकार से रहित हो जाय, योग क्षेम की चिन्ता न करे। मन पर विजय प्राप्त करे। जो निष्काम, निर्गुण, शान्त, अनासक्त, निराश्रय, आत्मपरायण और तत्त्व का ज्ञाता होता है, वह मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं हैं। जो मनुष्य आत्मा को हाथ, पैर, पीठ, मस्तक और उदर आदि अंगों से रहित, गुण कर्मों से हीन, कवेल, निर्मल, स्थिर, रूप-रस-गन्ध-स्पर्श और शब्द से रहित, ज्ञेय, अनासक्त, हाड़ मांस के शरीर से, निश्चिन्त, अविनाशी, दिव्य और सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित सदा एकरस रहने वाला जानते हैं, उनकी कभी मृत्यु नहीं होती। उस आत्मतत्त्व तक बुद्धि, इन्द्रिय और देवताओं की भी पहुँच नहीं होती। जहाँ केवल ज्ञानवान महात्माओं की ही गती है, वहाँ वेद, यज्ञ, लोक, तप और व्रत का भी प्रवेश नहीं होता, क्योंकि वह बाह्य चिह्न से रहित मानी गयी है। इसलिये बाह्य चिह्नों से रहित धर्म को जानकर उसका यथार्थ रूप से पालन करना चाहिये।[3]

गुह्य धर्म में स्थित विद्वान पुरुष को उचित है कि वह विज्ञान के अनुरूप आचरण करे। मूढ़ न होकर भी मूढ़ के समान बर्ताव करे, किंतु अपने किसी व्यवहार से धर्म को कलंकित न करे। जिस काम के करने से समाज के दूसरे लोग अनादर करें, वैसा ही काम शान्त रहकर सदा करता रहे, किंतु सत्पुरुषों के धर्म की निन्दा न करे। जो इस प्रकार के बर्ताव से सम्पन्न है, वह श्रेष्ठ मुनि कहलाता है। जो मनुष्य इन्द्रिय, उनके विषय, पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति और पुुरुष- सबका विचार करके इन के तत्त्व का यथावत निश्चय कर लेता है, वह सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त होकर स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है। जो तत्त्ववेत्ता अन्त समय में इन तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करके एकान्त में बैठकर परमात्मा का ध्यान करता है, वह आकाश में विचरने वाले वायु की भाँति सब प्रकार की आसक्तियों से छूटकर पंचकोशों से रहित, निभ्रय तथा निराश्रय होकर मुक्त एवं परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 46 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 46 श्लोक 18-32
  3. 3.0 3.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 46 श्लोक 33-51
  4. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 46 श्लोक 52-58

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