महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 46 श्लोक 33-51

षट्चत्वारिंश (46) अध्‍याय: आश्वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

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महाभारत: आश्वमेधिक पर्व: षट्चत्वारिंश अध्याय: श्लोक 33-51 का हिन्दी अनुवाद


खाने के लिये अन्न और शरीर ढकने के लिये वस्त्र के सिवा और किसी वस्तु का संग्रह न करे। भिक्षा भी, जितनी भोजन के लिये आवश्यक हो, उतनी ही ग्रहण करे, उससे अधिक नहीं। बुद्धिमान संन्यासी को चाहिये कि दूसरों के लिये भिक्षा न माँगे तथा सब प्राणियों के लिये दया भाव से संविभागपूर्वक कभी कुछ देने की इच्छा भी न करे। दूसरों के अधिकार का अपहरण न करे। बिना प्रार्थना के किसी की कोई वस्तु स्वीकार न करे। किसी अच्छी वस्तु का उपभोग करके फिर उसके लिये लालायित न रहे। मिट्टी, जल, अन्न, पत्र, पुष्प और फल- ये वस्तुएँ यदि किसी के अधिकार में न हों तो आवश्यकता पड़ने पर क्रियाशील संन्यासी इन्हें काम में ला सकता है। वह शिल्पकारी करके जीविका न चलावे, सवर्ण की इच्छा न करे। किसी से द्वेष न करे और उपदेशक न बने तथा संग्रहरहित रहे। श्रद्धा से प्राप्त हुए पवित्र अन्न का आहार करे। मन में कोई निमित्त न रखे। सबके साथ अमृत के समान मधुर बर्ताव करे, कहीं भी आसक्त न हो और किसी भी प्राणी के साथ परिचय न बढ़ावे। जितने भी कामना और हिंसा से युक्त कर्म हैं, उन सबका एवं लौकिक कर्मों का स्वयं अनुष्ठान करे और न दूसरों से करावे। सब प्रकार के पदार्थों की आसक्ति का उल्लंघन करके थोड़े में संतुष्ट हो सब और विचरता रहे। स्थावर और जंगम सभी प्राणियों के प्रति समान भाव रखे। किसी दूसरे प्राणी को उद्वेग में न डाले और स्वयं भी किसी से उद्विग्न न हो। जो सब प्राणियों का विश्वास पात्र बन जाता है, वह सबसे श्रेष्ठ और मोक्ष धर्म का ज्ञाता कहलाता है। संन्यासी को उचित है कि भविष्य के लिये विचार न करे, बीती हुई घटना का चिन्तन न करे और वर्तमान की भी उपेक्षा कर दे। केवल काल की प्रतीक्षा करता हुआ चित्तवृत्तियों का समाधान करता रहे। नेत्र से, मन से और वाणी से कहीं भी दोषदृष्टि न करे।

सबके सामने या दूसरों की आँख बचाकर कोई बुराई न करे। जैसे कछुआ अपने अंगों को सब ओर से समेट लेता है, उसी प्रकार इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटा ले। इन्द्रिय, मन और बुद्धि को दुर्बल करके निश्चेष्ट हो जाय। सम्पूर्ण तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त करे। द्वन्द्वों से प्रभावित न हो, किसी के सामने माथा न टेके। स्वाहाकार (अग्निहोत्र आदि) का परित्याग करे। ममता और अहंकार से रहित हो जाय, योग क्षेम की चिन्ता न करे। मन पर विजय प्राप्त करे। जो निष्काम, निर्गुण, शान्त, अनासक्त, निराश्रय, आत्मपरायण और तत्त्व का ज्ञाता होता है, वह मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं हैं। जो मनुष्य आत्मा को हाथ, पैर, पीठ, मस्तक और उदर आदि अंगों से रहित, गुण कर्मों से हीन, केवल, निर्मल, स्थिर, रूप-रस-गन्ध-स्पर्श और शब्द से रहित, ज्ञेय, अनासक्त, हाड़ मांस के शरीर से, निश्चिन्त, अविनाशी, दिव्य और सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित सदा एकरस रहने वाला जानते हैं, उनकी कभी मृत्यु नहीं होती। उस आत्मतत्त्व तक बुद्धि, इन्द्रिय और देवताओं की भी पहुँच नहीं होती। जहाँ केवल ज्ञानवान महात्माओं की ही गती है, वहाँ वेद, यज्ञ, लोक, तप और व्रत का भी प्रवेश नहीं होता, क्योंकि वह बाह्य चिह्न से रहित मानी गयी है। इसलिये बाह्य चिह्नों से रहित धर्म को जानकर उसका यथार्थ रूप से पालन करना चाहिये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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