- महाभारत स्त्री पर्व में जलप्रदानिक पर्व के अंतर्गत आठवें अध्याय में व्यास का धृतराष्ट्र को समझाने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]
विषय सूची
धृतराष्ट्र का शोक में डूबना
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! विदुर जी के ये वचन सुनकर कुरुश्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र पुत्र शोक से संतप्त एवं मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। उन्हें इस प्रकार अचेत होकर भूमि पर गिरा देख सभी भाई-बन्धु, व्यास जी, विदुर, संजय, सुहृद्रण तथा जेा विश्वसनीय द्वारपाल थे, वे सभी शीतल जल के छींटे देकर ताड़ के पंखों से हवा करने और उनके शरीर पर हाथ फेरने लगे। उस बेहोशी की अवस्था में वे बड़े यत्न के साथ धृतराष्ट्र को होश में लाने के लिये देर तक आवश्यक उपचार करते रहे। तदनन्तर दीर्घकाल के पश्चात राजा धृतराष्ट्र को चेत हुआ और वे पुत्रों की चिन्ता में डूबकर बड़ी देर तक विलाप करते रहे। वे बोले- ‘इस मनुष्य जन्म को धिक्कार है! इसमें भी विवाह आदि करके परिवार बढ़ाना तो और भी बुरा है; क्योंकि उसी के कारण बारंबार नाना प्रकार के दु:ख प्रात्प होते हैं। ‘प्रभो! पुत्र, धन, कुटुम्ब और सम्बन्धियों का नाश होने पर तो विष पीने और आग में जलने के समान बड़ा भारी दु:ख भोगना पड़ता है। ‘उस दु:ख से सारा शरीर जलने लगता है, बुद्धि नष्ट हो जाती है और उस असह्य शोक से पीड़ित हुआ पुरुष जीने की अपेक्षा मर जाना अधिक अच्छा समझता है। ‘आज भाग्य के फेर से वही यह स्वजनों के विनाश का महान दु:ख मुझे प्राप्त हुआ है। अब प्राण त्याग देने के सिवा और किसी उपाय द्वारा मैं इस दु:ख से पार नहीं पा सकता। ‘द्विजश्रेष्ठ! इसलिये आज ही मैं अपने प्राणों का परित्याग कर दूँगा। अपने ब्रह्मवेत्ता पिता महात्मा व्यास जी से ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र अत्यन्त शोक में डूब गये और सुध-बुध खो बैठै। राजन! पुत्रों का ही चिन्तन करते हुए वे बूढे़ नरेश वहाँ मौन होकर बैठे रह गये।
व्यास का धृतराष्ट्र को समझाना
उनकी बात सुनकर शक्तिशाली महात्मा श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास पुत्र शोक से संतप्त हुए अपने बेटे से इस प्रकार बोले- व्यास जी ने कहा- महाबाहु धृतराष्ट्र! मैं तुमसे जो कुछ कहता हू़ँ, उसे ध्यान देकर सुनो। प्रभो! तुम वेदशास्त्रों के ज्ञान से सम्पन्न, मेधावी तथा धर्म और अर्थ के साधन में कुशल हो। शत्रुसंतापी नरेश! जानने योग्य जो कोई भी तत्त्व है, वह तुमसे अज्ञात नहीं है। तुम मानव-जीवन की अनित्यता को अच्छी तरह जानते हो, इसमें संशय नहीं है। भरतनन्दन! जब जीव-जगत अनित्य है, सनातन परम पद नित्य है और इस जीवन का अन्त मृत्यु में ही है, तब तुम इसके लिये शोक क्यों करते हो? राजेन्द्र! तुम्हारे पुत्र को निमित्त बनाकर काल की प्रेरणा से इस वैर की उत्पत्ति तो तुम्हारे सामने ही हुई थी। नरेश्वर! जब कौरवों का यह विनाश अवश्यम्भावी था, तब परम गति को प्राप्त हुए उन शूरवीरों के लिये तुम क्यों शोक कर रहे हो? महाबाहु नरेश्वर! महात्मा विदुर इस भावी परिणाम को जानते थे, इसलिये इन्होंने सारी शक्ति लगाकर संधि के लिये प्रयत्न किया था। मेरा तो ऐसा विश्वास है कि दीर्घ काल तक प्रयत्न करके भी कोई प्राणी दैव के विधान को रोक नहीं सकता।[1]
देवताओं का कार्य मैंने प्रत्यक्ष अपने कानों से सुना है, वह तुम्हें बता रहा हूँ, जिससे तुम्हारा मन स्थिर हो सके। पूर्व काल की बात है, एक बार मैं यहाँ से शीघ्रतापूर्वक इन्द्र की सभा में गया। वहाँ जाने पर भी मुझे कोई थकावट नहीं हुई; क्योंकि मैं इन सब पर विजय पा चुका हूँ। वहाँ उस समय मैंने देखा कि इन्द्र की सभा में सम्पूर्ण देवता एकत्र हुए हैं। अनघ! वहाँ नारद आदि समस्त देवर्षि भी उपस्थित थे। पृथ्वीनाथ! मैंने वहीं इस पृथ्वी को भी देखा, जो किसी कार्य के लिये देवताओं के पास गयी थी। उस समय विश्वधारिणी पृथ्वी ने वहाँ एकत्र हुए देवताओं के पास जाकर कहा- ‘महाभाग देवताओं! आप लोगों ने उस दिन ब्रह्मा जी की सभा में मेरे जिस कार्य को सिद्ध करने की प्रतिज्ञा की थी, उसे शीघ्र पूर्ण कीजिये’। उसकी बात सुनकर विश्ववन्दित भगवान विष्णु ने देवसभा में पृथ्वी की ओर देखकर हँसते हुए कहा- ‘शुभे! धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों में जो सबसे बड़ा और दुर्योधन नाम से विख्यात है, वही तेरा कार्य सिद्ध करेगा। उसे राजा के रुप में पाकर तू कृतार्थ हो जायेगी। ‘उसके लिये सारे भूपाल कुरुक्षेत्र में एकत्र होंगे और सुदृढ़ शस्त्रों द्वारा परस्पर प्रहार करके एक दूसरे का वध कर डालेंगे। ‘देवि! इस प्रकार उस युद्ध में तेरे भार का नाश हो जायेगा। शोभने! अब तू शीघ्र अपने स्थान पर जा और समस्त लोकों को पूर्ववत धारण कर’। राजन! नरेश्वर! यह जो तुम्हारा पुत्र दुर्योधन था, वह सारे जगत का संहार करने के लिये कलि का मूर्तिमान अंश ही गान्धारी के पेट से पैदा हुआ था। वह अमर्षशील, क्रोधी, चञ्चल और कूटनीति से काम लेने वाला था। दैव योग से उसके भाई भी वैसे ही उत्पन्न हुए! मामा शकुनि और परम मित्र कर्ण भी उसी विचार के मिल गये। ये सब नरेश शत्रुओं का विनाश करने के लिये ही एक साथ इस भूमण्डल पर उत्पन्न हुए थे। जैसा राजा होता है, वैसे ही उसके स्वजन और सेवक भी होते हैं। यदि स्वामी धार्मिक हो तो अधर्मी सेवक भी धार्मिक बन जाते हैं। सेवक स्वामी के ही गुण-दोषों से युक्त होते हैं, इसमें संशय नहीं है। महाबाहु नरेश्वर! दुष्ट राजा को पाकर तुम्हारे सभी पुत्र उसी के साथ नष्ट हो गये। इस बात को तत्त्ववेत्ता नारद जी जानते हैं। पृथ्वीनाथ! आपके पुत्र अपने ही अपराध से विनाश को प्राप्त हुए हैं। राजेन्द्र! उनके लिये शोक न करो; क्योंकि शोक के लिये कोई उपयुक्त कारण नहीं है। भारत! पाण्डवों ने तुम्हारा थोड़ा-सा भी अपराध नहीं किया है। तुम्हारे पुत्र ही दुष्ट थे, जिन्होंने इस भूमण्डल का नाश करा दिया।[2]
राजन! तुम्हारा कल्याण हो। राजसूय यज्ञ के समय देवर्षि नारद ने राजा युधिष्ठिर की सभा में नि:संदेह पहले ही यह बात बता दी थी कि कौरव और पाण्डव सभी आपस में लड़कर नष्ट हो जायेंगे; अत: कुन्तीनन्दन! तुम्हारे लिये जो आवश्यक कर्तव्य हो, उसे करो।[2] प्रभो! नारद जी की वह बात सुनकर उस समय पाण्डव बहुत चिन्तित हो गये थे। इस प्रकार मैंने तुमसे देवताओं का यह सारा सनातन रहस्य बताया है, जिससे किसी तरह तुम्हारे शोक का नाश हो। तुम अपने प्राणों पर दया कर सको और देवताओं का विधान समझकर पाण्डु के पुत्रों पर तुम्हारा स्नेह बना रहे। महाबाहो! यह बात मैंने बहुत पहले ही सुन रखी थी और क्रतुश्रेष्ठ राजसूय में धर्मराज युधिष्ठिर को बता भी दी थी। मेरे द्वारा उस गुप्त रहस्य के बता दिये जाने पर धर्म पुत्र युधिष्ठिर ने बहुत प्रयत्न किया कि कौरवों में परस्पर कलह न हो; परन्तु दैव का विधान बड़ा प्रबल होता है। राजन! दैव अथवा काल के विधान का चराचर प्राणियों में से कोई भी किसी तरह लाँघ नहीं सकता। भरतनन्दन! तुम धर्मपरायण और बुद्धि में श्रेष्ठ हो। तुम्हें प्राणियों के आवागमन का रहस्य भी ज्ञात है, तो भी क्यों मोह के वशीभूत हो रहे हो? तुम्हें बारंबार शोक से संतप्त और मोहित हो जानकर राजा युधिष्ठिर अपने प्राणों का भी परित्याग कर देंगे। राजेन्द्र! वीर युधिष्ठिर पशु-पक्षी आदि योनि के प्राणियों पर भी सदा दयाभाव बनाये रखते हैं; फिर तुम पर वे कैसे दया नहीं करेंगे? अत: भारत! मेरी आज्ञा मानकर, विधाता का विधान टल नहीं सकता, ऐसा समझकर तथा पाण्डवों पर करुणा करके तुम अपने प्राण धारण करो। तात! ऐसा बर्ताव करने से संसार में तुम्हारी कीर्ति बढ़ेगी, महान धर्म और अर्थ की सिद्धि होगी तथा दीर्घकाल तक तपस्या करने का तुम्हें फल प्राप्त होगा। महाभाग! प्रज्वलित आग के समान जो तुम्हें यह पुत्र शोक प्राप्त हुआ है, इसे विचार रुपी जल के द्वारा सदा के लिये बुझा दो।[3]
व्यास का अन्तर्धान होना
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! अमित तेजस्वी व्यास जी का यह वचन सुनकर राजा धृतराष्ट्र दो घड़ी तक कुछ सोच-विचार करते रहे; फिर इस प्रकार बोले- ‘विप्रवर! मुझे महान शोक जाल ने सब ओर से जकड़ रखा है। मैं अपने आप को ही नहीं समझ पा रहा हूँ। मुझे बारंबार मूर्छा आ जाती है। ‘अब आपका यह वचन सुनकर कि सब कुछ देवताओं की प्रेरणा से हुआ है, मैं अपने प्राण धारण करुँगा और यथाशक्ति इस बात के लिये भी प्रयत्न करुँगा कि मुझे शोक न हो’। राजेन्द्र! धृतराष्ट्र का यह वचन सुनकर सत्यवतीनन्दन व्यास वहीं अन्तर्धान हो गये।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-19
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 8 श्लोक 20-38
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 8 श्लोक 39-53
सम्बंधित लेख
महाभारत स्त्री पर्व में उल्लेखित कथाएँ
- जलप्रदानिक पर्व
धृतराष्ट्र का दुर्योधन व कौरव सेना के संहार पर विलाप | संजय का धृतराष्ट्र को सान्त्वना देना | विदुर का धृतराष्ट्र को शोक त्यागने के लिए कहना | विदुर का शरीर की अनित्यता बताते हुए शोक त्यागने के लिए कहना | विदुर द्वारा दुखमय संसार के गहन स्वरूप और उससे छूटने का उपाय | विदुर द्वारा गहन वन के दृष्टांत से संसार के भयंकर स्वरूप का वर्णन | विदुर द्वारा संसाररूपी वन के रूपक का स्पष्टीकरण | विदुर द्वारा संसार चक्र का वर्णन | विदुर का संयम और ज्ञान आदि को मुक्ति का उपाय बताना | व्यास का धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र का शोकातुर होना | विदुर का शोक निवारण हेतु उपदेश | धृतराष्ट्र का रणभूमि जाने हेतु नगर से बाहर निकलना | कृपाचार्य का धृतराष्ट्र को कौरव-पांडवों की सेना के विनाश की सूचना देना | पांडवों का धृतराष्ट्र से मिलना | धृतराष्ट्र द्वारा भीम की लोहमयी प्रतिमा भंग करना | धृतराष्ट्र के शोक करने पर कृष्ण द्वारा समझाना | कृष्ण के फटकारने पर धृतराष्ट्र का पांडवों को हृदय से लगाना | पांडवों को शाप देने के लिए उद्यत हुई गांधारी को व्यास द्वारा समझाना | भीम का गांधारी से क्षमा माँगना | युधिष्ठिर द्वारा अपना अपराध मानना एवं अर्जुन का भयवश कृष्ण के पीछे छिपना | द्रौपदी का विलाप तथा कुन्ती एवं गांधारी का उसे आश्वासन देना
- स्त्रीविलाप पर्व
| गांधारी का कृष्ण के सम्मुख विलाप | दुर्योधन व उसके पास रोती हुई पुत्रवधु को देखकर गांधारी का विलाप | गांधारी का अपने अन्य पुत्रों तथा दु:शासन को देखकर विलाप करना | गांधारी का विकर्ण, दुर्मुख, चित्रसेन तथा दु:सह को देखकर विलाप | गांधारी द्वारा उत्तरा और विराटकुल की स्त्रियों के विलाप का वर्णन | गांधारी द्वारा कर्ण की स्त्री के विलाप का वर्णन | गांधारी का जयद्रथ एवं दु:शला को देखकर कृष्ण के सम्मुख विलाप | भीष्म और द्रोण को देखकर गांधारी का विलाप | भूरिश्रवा के पास उसकी पत्नियों का विलाप | शकुनि को देखकर गांधारी का शोकोद्गार | गांधारी का अन्यान्य वीरों को मरा देखकर शोकातुर होना | गांधारी द्वारा कृष्ण को यदुवंशविनाश विषयक शाप देना
- श्राद्ध पर्व
| युधिष्ठिर द्वारा महाभारत युद्ध में मारे गये लोगों की संख्या और गति का वर्णन | युधिष्ठिर की अज्ञा से सबका दाह संस्कार | स्त्री-पुरुषों का अपने मरे हुए सम्बंधियों को जलांजलि देना | कुन्ती द्वारा कर्ण के जन्म का रहस्य प्रकट करना | युधिष्ठिर का कर्ण के लिये शोक प्रकट करते हुए प्रेतकृत्य सम्पन्न करना
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