गांधारी का विकर्ण, दुर्मुख, चित्रसेन तथा दु:सह को देखकर विलाप

महाभारत स्त्री पर्व में स्त्रीविलाप पर्व के अंतर्गत 19वें अध्याय में वैशम्पायन ने विकर्ण, दुर्मुख, चित्रसेन, विविंशती तथा दु:सह को देखकर गांधारी का श्रीकृष्ण के सम्मुख विलाप करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

गांधारी का विकर्ण एवं दुर्मुख को देखकर शोक करना

गान्धारी बोलीं- माधव! यह मेरा पुत्र विकर्ण, जो विद्वानों द्वारा सम्मानित होता था, भूमि पर मरा पड़ा है। भीमसेन ने इसके भी सौ-सौ टुकड़े कर डाले हैं। मधुसूदन! जैसे शरतकाल में मेघों की घटा से घिरा हुआ चन्द्रमा शोभा पा रहा है, उस प्रकार भीम द्वारा मारा गया विकर्ण हाथियों की सेना के बीच में सो रहा है। बराबर धनुष लिये रहने से इसकी विशाल हथेली में घट्ठा पड़ गया है। इसके हाथों में इस समय भी दस्ताना बंधा हुआ है; इसलिये इसे खाने की इच्छा वाले गीध बड़ी कठिनाई से किसी किसी तरह काट पाते हैं। माधव! उसकी तपस्विनी पत्‍नी जो अभी बालिका है, मांस लोलुप गीधों और कौओं को हटाने की निरंतर चेष्टा करती है; परंतु सफल नहीं हो पाती है। पुरुष प्रवर माधव! विकर्ण नवयुवक देवता के समान कांतिमान, शूरवीर, सुख में पला हुआ तथा सुख भोगने के योग्य ही था; परंतु आज धूल में लोट रहा है। युद्ध में कर्णी, नालीक और नाराचों के प्रहार से इसके मर्मस्थल विदीर्ण हो गये हैं तो भी इस भरतभूषण वीर को अभी तक लक्ष्मी (अंगकान्ति) छोड़ नहीं रही है।

जो शत्रु समूहों का संहार करने वाला था, वह दुर्मुख प्रतिज्ञा पालन करने वाला संग्राम शूर भीमसेन के हाथों मारा जाकर समर में सम्मुख सो रहा है। तात श्रीकृष्ण इसका यह मुख हिंसक जन्तुओं द्वारा आधा खा लिया गया है, इसलिये सप्तमी के चन्द्रमा की भाँति सुशोभित हो रहा है। श्रीकृष्ण! देखो मेरे इस रणशूर पुत्र का मुख कैसा तेजस्वी है? पता नहीं, मेरा यह वीर पुत्र किस तरह शत्रुओं के हाथ से मारा जाकर धूल फांक रहा है। सौम्य! युद्ध के मुहाने पर जिसके सामने कोई ठहर नहीं पाता था उस देवलोक विजयी दुर्मुख को शत्रुओं ने कैसे मार डाला?[1]

चित्रसेन एवं दु:सह को देख गांधारी का विलाप

मधुसूदन! देखो, जो धनुर्धरों का आदर्श था वही यह धृतराष्ट्र का पुत्र चित्रसेन मारा जाकर पृथ्वी पर पड़ा हुआ है। विचित्र माला और आभूषण धारण करने वाले उस चित्रसेन को घेरकर शोक से कातर हो रोती हुई युवतियां हिंसक जन्तुओं के साथ उसके पास बैठी हैं। श्रीकृष्ण! एक ओर स्त्रियों के रोने की आवाज है तो दूसरी ओर हिंसक जन्तुओं की गर्जना हो रही है। यह अद्भुत दृश्‍य मुझे विचित्र प्रतीत होता है। माधव! देखो, वह देवतुल्य नव-युवक विविंशति, जिसकी सुन्दरी स्त्रियां सदा सेवा किया करती थीं, आज विध्वस्त होकर धूल में पड़ा है। श्रीकृष्ण! देखो, बाणों से इसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया है। युद्ध में मारे गये इस वीर विविंशति को गीध चारों ओर से घेरकर बैठे हैं। जो शूरवीर समरांगण में पाण्डवों की सेना के भीतर घुसकर लोहा लेता था, वही आज सत्पुरुषोचित वीरशय्या पर शयन कर रहा है।

श्रीकृष्ण! देखो, विविंशति का मुख अत्यंत उज्ज्वल है, इसके अधरों पर मुस्कराहट खेल रही है, नासिका मनोहर और भौहें सुन्दर हैं यह मुख चन्द्रमा के समान शोभा पा रहा है।[1] जैसे क्रीड़ा करते हुए गन्धर्व के साथ सहस्रों देव कन्याऐं होती हैं, उसी प्रकार इस विविंशति की सेवा में बहुत सी सुन्दरी स्त्रियां रहा करती थीं। शत्रु की सेना का संहार करने में समर्थ तथा युद्ध में शोभा पाने वाले शूरवीर शत्रुसूदन दु:सह का वेग कौन सह सकता था? उसी दुसह का यह शरीर बाणों से खचाखच भरा हुआ है, जो अपने ऊपर खिले हुए कनेर के फूलों से व्याप्त पर्वत के समान सुशोभित होता है। यद्यपि दु:सह के प्राण चले गये हैं तो भी वह सोने की माला और तेजस्वी कवच से सुशोभित हो अग्नि युक्त स्वेत पर्वत के समान जान पड़ता है।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-17
  2. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 19 श्लोक 18-21

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