संजय का धृतराष्ट्र को सान्त्वना देना

महाभारत स्त्री पर्व में जलप्रदानिक पर्व के अंतर्गत प्रथम अध्याय में संजय का धृतराष्ट्र को सान्त्वना देने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

संजय का धृतराष्ट्र को सान्त्वना देना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र जब बहुत शोक प्रकट करते हुए बारंबार विलाप करने लगे, तब संजय ने उनके शोक का निवारण करने के लिये यह बात कही- ‘नृपश्रेष्‍ठ राजन! आपने बडे़-बूढ़ों के मुख से वे वेदों के सिद्धान्‍त, नाना प्रकार के शास्त्र एवं आगम सुने हैं, जिन्‍हें पूर्वकाल में मुनियों ने राजा सृंजय को पुत्र-शोक से पीड़ित होने पर सुनाया था, अत: आप शोक त्‍याग दीजिये। ‘नरेश्‍वर! जब आपका पुत्र दुर्योधन जवानी के घमंड में आकर मनमाना बर्ताव करने लगा, तब आपने ‍हित की बात बताने वाले सुहृदों के कथन पर ध्‍यान नहीं दिया। उसके मन में लोभ था और वह राज्‍य का सारा लाभ स्‍वयं ही भेगना चाहता था, इसलिये उसने दूसरे किसी को अपने स्‍वार्थ का सहायक नहीं बनाया। एक ओर धारवाली तलवार के समान अपनी ही बुद्धि से सदा काम लिया। प्राय: जो अनाचारी मनुष्‍य थे, उन्‍हीं का निरन्‍तर साथ किया। दु:शासन, दुरात्‍मा राधा पुत्र कर्ण, दुष्टात्‍मा शकुनि, दुर्बुद्धि चित्रसेन तथा जिन्‍होंने सारे जगत को शल्‍यमय (कण्‍ट का कीर्ण) बना दिया था, वे शल्‍य- ये ही लोग दुर्योधन के मन्‍त्री थे। ‘महाराज! महाबहो! भरतनन्‍दन! कुरुकुल के ज्ञान वृद्ध पुरुष भीष्‍म, गान्‍धारी, विदुर, द्रोणाचार्य, शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य, श्रीकृष्‍ण, बुद्धिमान देवर्षि नारद, अमिततेजस्‍वी वेदव्यास तथा अन्‍य महर्षियों की भी बातें आपके पुत्र ने नहीं मानीं। ‘वह सदा युद्ध की ही इच्‍छा रखता था; इसलिये उसने कभी किसी धर्म का आदरपूर्वक अनुष्ठान नहीं किया। वह मन्‍दबुद्धि और अहंकारी था; अत: नित्‍य युद्ध-युद्ध ही चिल्लाया करता था। उसके हृदय में क्रूरता भरी थी। वह सदा अमर्ष में भरा रहने वाला, पराक्रमी और असंतोषी था (इसीलिये उसकी दुर्गति हुई है)। ‘आप तो शास्त्रों के विद्वान, मेधावी और सदा सत्‍य में तत्‍पर रहने वाले हैं। आप जैसे बुद्धिमान एवं साधु पुरुष मोह के वशीभूत नहीं होते हैं। ‘मान्‍यवर नरेश! आपके उस पुत्र ने किसी भी धर्म का सत्‍कार नहीं किया। उसने सारे क्षत्रियों का संहार करा डाला और शुत्रओं का यश बढ़ाया।[1]

आप भी मध्‍यस्‍थ बनकर बैठे रहे, उसे कोई उचित सलाह नहीं दी। आप दुर्धर्ष वीर थे- आपकी बात कोई टाल नहीं सकता था, तो भी आपने दोनों ओर के बोझे को समभाव से तराजू पर रखकर नहीं तौला। ‘मनुष्‍य को पहले ही यथा योग्‍य बर्ताव करना चाहिये, जिससे आगे चलकर उसे बीती हुई बात के ‍लिये पश्चाताप न करना पड़े। ‘राजन! आपने पुत्र के प्रति आसक्ति रखने के कारण सदा उसी का प्रिय करना चाहा, इसीलिये इस समय आपको यह पश्चाताप का अवसर प्राप्‍त हुआ है; अत: अब आप शोक न करें। ‘जो केवल ऊँचे स्‍थान पर लगे हुए मधु को देखकर वहाँ से गिरने की सम्‍भावना की ओर से आँख बंद कर लेता है, वह उस मधु के लालच से नीचे गिरकर इसी तरह शोक करता है, जैसे आप कर रहे हैं। ‘शोक करने वाला मनुष्‍य अपने अभीष्ट पदार्थों को नहीं पाता है, शोकपरायण पुरुष किसी फल को नहीं हस्‍तगत कर पाता है। शोक करने वाले को न तो लक्ष्‍मी की प्राप्ति होती है और न उसे परमात्मा ही मिलता है।[2]

‘जो मनुष्‍य स्‍वयं आग जलाकर उसे कपड़े में लपेट लेता है और जलने पर मन-ही-मन संताप का अनुभव करता है, वह बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता है। ‘पुत्रसहित आपने ही अपने लोभरुपी घी से सींचकर और वचनरुपी वायु से प्रेरित करके पार्थरूपी अग्नि को प्रज्‍जलित किया था। ‘उसी प्रज्‍जलित अग्नि में आपके सारे पुत्र पतंगों के समान पड़ गये हैं। बाणों की आग में जलकर भस्‍म हुए उन पुत्रों के लिये आपको शोक नहीं करना चाहिये। ‘नरेश्वर! आप को आँसुओं की धारा से भीगा हुआ मुँह लिये फिरते हैं, यह अशास्त्रीय कार्य है। विद्वान पुरुष इसकी प्रशंसा नहीं करते हैं। ‘ये शोक के आँसू आग की चिनगारियों के समान इन मनुष्‍यों को नि:संदेह जलाया करते हैं; अत: आप शोक छोड़िये और बुद्धि के द्वारा अपने मन को स्‍वयं ही सुस्थिर कीजिये’। वैशम्‍पायन जी कहते हैं- शत्रुओं को संताप देने वाले जनमेजय! महात्‍मा संजय ने जब इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र को आश्वासन दिया, तब विदुर जी ने भी पुन: सन्‍त्‍वना देते हुए उनसे यह विचारपूर्ण वचन कहा।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-14
  2. 2.0 2.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 1 श्लोक 34-44

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महाभारत स्त्री पर्व में उल्लेखित कथाएँ


जलप्रदानिक पर्व

धृतराष्ट्र का दुर्योधन व कौरव सेना के संहार पर विलाप | संजय का धृतराष्ट्र को सान्त्वना देना | विदुर का धृतराष्ट्र को शोक त्यागने के लिए कहना | विदुर का शरीर की अनित्यता बताते हुए शोक त्यागने के लिए कहना | विदुर द्वारा दुखमय संसार के गहन स्वरूप और उससे छूटने का उपाय | विदुर द्वारा गहन वन के दृष्टांत से संसार के भयंकर स्वरूप का वर्णन | विदुर द्वारा संसाररूपी वन के रूपक का स्पष्टीकरण | विदुर द्वारा संसार चक्र का वर्णन | विदुर का संयम और ज्ञान आदि को मुक्ति का उपाय बताना | व्यास का धृतराष्ट्र को समझाना | धृतराष्ट्र का शोकातुर होना | विदुर का शोक निवारण हेतु उपदेश | धृतराष्ट्र का रणभूमि जाने हेतु नगर से बाहर निकलना | कृपाचार्य का धृतराष्ट्र को कौरव-पांडवों की सेना के विनाश की सूचना देना | पांडवों का धृतराष्ट्र से मिलना | धृतराष्ट्र द्वारा भीम की लोहमयी प्रतिमा भंग करना | धृतराष्ट्र के शोक करने पर कृष्ण द्वारा समझाना | कृष्ण के फटकारने पर धृतराष्ट्र का पांडवों को हृदय से लगाना | पांडवों को शाप देने के लिए उद्यत हुई गांधारी को व्यास द्वारा समझाना | भीम का गांधारी से क्षमा माँगना | युधिष्ठिर द्वारा अपना अपराध मानना एवं अर्जुन का भयवश कृष्ण के पीछे छिपना | द्रौपदी का विलाप तथा कुन्ती एवं गांधारी का उसे आश्वासन देना

स्त्रीविलाप पर्व

| गांधारी का कृष्ण के सम्मुख विलाप | दुर्योधन व उसके पास रोती हुई पुत्रवधु को देखकर गांधारी का विलाप | गांधारी का अपने अन्य पुत्रों तथा दु:शासन को देखकर विलाप करना | गांधारी का विकर्ण, दुर्मुख, चित्रसेन तथा दु:सह को देखकर विलाप | गांधारी द्वारा उत्तरा और विराटकुल की स्त्रियों के विलाप का वर्णन | गांधारी द्वारा कर्ण की स्त्री के विलाप का वर्णन | गांधारी का जयद्रथ एवं दु:शला को देखकर कृष्ण के सम्मुख विलाप | भीष्म और द्रोण को देखकर गांधारी का विलाप | भूरिश्रवा के पास उसकी पत्नियों का विलाप | शकुनि को देखकर गांधारी का शोकोद्गार | गांधारी का अन्यान्य वीरों को मरा देखकर शोकातुर होना | गांधारी द्वारा कृष्ण को यदुवंशविनाश विषयक शाप देना

श्राद्ध पर्व

| युधिष्ठिर द्वारा महाभारत युद्ध में मारे गये लोगों की संख्या और गति का वर्णन | युधिष्ठिर की अज्ञा से सबका दाह संस्कार | स्त्री-पुरुषों का अपने मरे हुए सम्बंधियों को जलांजलि देना | कुन्ती द्वारा कर्ण के जन्म का रहस्य प्रकट करना | युधिष्ठिर का कर्ण के लिये शोक प्रकट करते हुए प्रेतकृत्य सम्पन्न करना

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