विदुर का शोक निवारण हेतु उपदेश

महाभारत स्त्री पर्व में जलप्रदानिक पर्व के अंतर्गत नौवें अध्याय में विदुर का शोक निवारण हेतु धृतराष्ट्र को उपदेश देने का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

विदुर का धृतराष्ट्र को समझाना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- राजन! पृथ्‍वीपति धृतराष्ट्र को पृथ्‍वी पर सोया देख सब धर्मों के ज्ञाता विदुर जी उनके पास आये और इस प्रकार बोले। ‘राजन! उठिये, क्‍यों सो रहे हैं? भरतश्रेष्‍ठ! शोक न कीजिये। लोकनाथ! समस्‍त प्राणियों की यही अन्तिम गति है। ‘भरतनन्‍दन! सभी प्राणी जन्‍म से पहले अव्‍यक्त थे, बीच में व्‍यक्त हुए और अन्‍त में मृत्‍यु के बाद फिर अव्‍यक्त ही हो जायँगे, ऐसी दशा में उनके लिये शोक करने की क्‍या बात है। ‘शोक करने वाला मनुष्‍य न तो मरे हुए के साथ जाता है और न स्वयं ही मरता है। जब लोक की यही स्‍वाभाविक स्थिति है, तब आप किस लिये बारंबार शोक कर रहे हैं? ‘महाराज! जो युद्ध नहीं करता, वह भी मरता है और युद्ध करने वाला भी जीवित बच जाता है। काल को पाकर कोई भी उसका उल्‍लंघन नहीं कर सकता। ‘काल सभी विविध प्राणियों को खींचता है। कुलश्रेष्‍ठ! काल के लिये न तो कोई प्रिय है और न कोई द्वेष का पात्र ही। ‘भरतश्रेष्‍ठ! जैसे वायु तिनकों को सब ओर उड़ाती और गिराती रहती है, उसी प्रकार सारे प्राणी काल के अधीन होकर आते-जाते रहते हैं। ‘एक साथ आये हुए सभी प्राणियों को एक दिन वहीं जाना है। जिसका काल आ गया, वह पहले चला जाता है; फिर उसके लिये व्‍यर्थ शोक क्‍यों? ‘राजन! जो लोग युद्ध में मारे गये हैं और जिनके लिये आप बारंबार शोक कर रहे हैं, वे महामनस्‍वी वीर शोक करने के योग्‍य नहीं हैं, वे सब-के-सब स्वर्गलोक में चले गये। ‘अपने शरीर का त्‍याग करने वाले शूरवीर जिस तरह स्‍वर्ग में जाते हैं, उस तरह दक्षिणा वाले यज्ञों, तपस्‍याओं तथा विद्या से भी कोई नहीं जा सकता।[1]

‘वे सभी वीर वेदवेत्ता और अच्‍छी तरह ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले थे। ये सब-के-सब शत्रुओं का सामना करते हुए मारे गये थे; अत: उनके लिये शोक करने की क्‍या आवश्‍यकता है? ‘उन श्रेष्‍ठ पुरुषों ने शूरवीरों के शरीर रुपी अग्नियों में बाण रुपी हविष्य की आहुतियाँ दी थीं और अपने शरीर में जिनका हवन किया गया था, उन बाणों का आघात सहन किया था। ‘राजन! मैं तुम्‍हें स्‍वर्ग-प्राप्ति का सबसे उत्तम मार्ग बता रहा हूँ। इस जगत में क्षत्रिय के लिये युद्ध से बढ़कर स्‍वर्ग साधक दूसरा कोई उपाय नहीं है। ‘वे सभी महामनस्‍वी क्षत्रिय वीर युद्ध में शोभा पाने वाले थे। वे उत्तम भोगों से सम्‍पन्न पुण्‍यलोकों में जा पहुँचे हैं, अत: उन सबके लिये शोक नहीं करना चाहिये। ‘पुरुषप्रवर! आप स्‍वयं ही अपने मन को आश्‍वासन देकर शोक को त्‍याग दीजिये। आज शोक से व्‍याकुल होकर आपको अपने कर्तव्‍य कर्म का त्‍याग नहीं करना चाहिये’।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-18
  2. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 9 श्लोक 19-23

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जलप्रदानिक पर्व

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स्त्रीविलाप पर्व

| गांधारी का कृष्ण के सम्मुख विलाप | दुर्योधन व उसके पास रोती हुई पुत्रवधु को देखकर गांधारी का विलाप | गांधारी का अपने अन्य पुत्रों तथा दु:शासन को देखकर विलाप करना | गांधारी का विकर्ण, दुर्मुख, चित्रसेन तथा दु:सह को देखकर विलाप | गांधारी द्वारा उत्तरा और विराटकुल की स्त्रियों के विलाप का वर्णन | गांधारी द्वारा कर्ण की स्त्री के विलाप का वर्णन | गांधारी का जयद्रथ एवं दु:शला को देखकर कृष्ण के सम्मुख विलाप | भीष्म और द्रोण को देखकर गांधारी का विलाप | भूरिश्रवा के पास उसकी पत्नियों का विलाप | शकुनि को देखकर गांधारी का शोकोद्गार | गांधारी का अन्यान्य वीरों को मरा देखकर शोकातुर होना | गांधारी द्वारा कृष्ण को यदुवंशविनाश विषयक शाप देना

श्राद्ध पर्व

| युधिष्ठिर द्वारा महाभारत युद्ध में मारे गये लोगों की संख्या और गति का वर्णन | युधिष्ठिर की अज्ञा से सबका दाह संस्कार | स्त्री-पुरुषों का अपने मरे हुए सम्बंधियों को जलांजलि देना | कुन्ती द्वारा कर्ण के जन्म का रहस्य प्रकट करना | युधिष्ठिर का कर्ण के लिये शोक प्रकट करते हुए प्रेतकृत्य सम्पन्न करना

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