गांधारी का अन्यान्य वीरों को मरा देखकर शोकातुर होना

महाभारत स्त्री पर्व में स्त्रीविलाप पर्व के अंतर्गत 25वें अध्याय में वैशम्पायन ने गांधारी का अन्यान्य वीरों को मरा हुआ देखकर शोकातुर होकर विलाप करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

गांधारी का अन्यान्य वीरों को मरा देखकर शोकातुर होना

गान्धारी बोलीं- माधव! जो काबुल के बने हुए मुलायम बिछौनों पर सोने के योग्य हैं, वह बैल के समान हष्ट-पुष्ट कन्धों वाला दुर्जय वीर काम्बोज राज सुदक्षिण मरकर धूल में पड़ा हुआ है। उसकी चंदन चर्चित भुजाओं को रक्त में सनी हुई देख उसकी पत्नि अत्यन्त दुखी हो करुणाजनक विलाप कर रही है। वह कहती है- 'प्राणनाथ! सुन्दर हथेली और अंगुलियों से युक्त तथा परिघ के समान मोटी ये वे ही दोनों भुजाऐं हैं, जिनके भीतर आप मुझे अंक में भर लेते थे और उस अवस्था में मुझे जो प्रसन्नता होती थी, उसने पहले कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा था। जनेश्वर! अब आपके बिना मेरी क्या गति होगी'। श्रीकृष्ण! अपने जीवन बन्धु के मारे जाने से अनाथ हुई यह रानी कांपती हुई मधुर स्वर से विलाप कर रही है। घाम से मुर्झाती हुई नाना प्रकार की पुष्प मालाओं के समान यह राज रानियां धूप से तप गयी हैं, तो भी इनके शरीरों को सौन्दर्य श्री छोड़ नहीं रही हैं। मधुसूदन! देखो, पास ही वह शूरवीर कलिंगराज सो रहा है, जिसकी दोनों विशाल भुजाओं में चमकीले अंगद (बाजूबन्द) बंधे हुए हैं। जनार्दन! उधर मगध राजा जयत्सेन पड़ा है, जिसे चारों ओर से घेरकर उसकी पत्नियां अत्यन्त व्याकुल हो फूट-फूट कर रो ही हैं। श्रीकृष्ण! मधुर स्वर वाली इन विशाल लोचना रानियों का मन और कानों को मोह लेने वाला आर्तनाद मेरे मन को मूर्च्छित सा किये देता है। इनके वस्त्र और आभूषण अस्त व्यस्त हो रहे हैं। सुन्दन बिछौनों से युक्त शय्याओं पर शयन करने के योग्य ये मगध देश की रानियां शोक से व्याकुल हो रोती हुई भूमि पर लोट रही हैं। अपने पति कोसलनरेश राजकुमार बृहद्बल को भी चारों ओर से घेरकर उनकी रानियां अलग-अलग रो रही हैं।

अभिमन्यु के बाहुबल से प्रेरित होकर कोसल नरेष के अंगों में धंसे हुए बाणों को ये रानियां अत्यन्त दुखी होकर निकालती हैं और बार-बार मूर्च्छित हो जाती हैं। माधव! इन सर्वांग सुन्दरी राज महिलाओं के सुन्दर मुख धूप और परिश्रम के कारण मुर्झाये हुए कमलों के समान प्रतीत होते हैं। ये द्रोणाचार्य के मारे हुए धृष्टद्युम्न के सभी छोटे-छोटे शूरवीर बालक सो रहे हैं। इनकी भुजाओं में सुन्दर अंगद और गले में सोने के हार शोभा पाते हैं। द्रोणाचार्य प्रज्वलित अग्नि के समान थे, उनका रथ ही अग्निशाला था, धनुष ही उस अग्नि की लपट था, बाण, शक्ति और गदाऐं समिधा का काम दे रही थीं, धृष्टद्युम्न के पुत्र पतंगों के समान उस द्रोणरूपी अग्नि में जलकर भष्म हो गये। इसी प्रकार सुन्दर अंगदों से विभूषित पांचों शूरवीर भाई कैकय राजकुमार समरांगण में सम्मुख होकर जूझ रहे थे। वे सब के सब आचार्य द्रोण के हाथ से मारे जाकर सो रहे हैं। इन सबके कवच तपाये हुए स्वर्ण के बने हुए हैं और इनके रथ समूहेें ताल चिह्नित ध्वाजाओं से सुशोभित हैं। ये राजकुमार अपनी प्रभा से प्रज्वलित अग्नि के समान भू-तल को प्रकाशित कर रहे हैं। माधव! देखो, युद्धस्थल में द्रोणाचार्य ने जिन्हें मार गिराया था वे राजा द्रुपद सो रहे हैं, मानो किसी वन में विशाल सिंह के द्वारा कोई महान गजराज मारा गया हो।[1]

कमलनयन! पाञ्चालराज का भय निर्मल स्वेत छत्र शरत्काल के चन्द्रमा की भाँति सुशोभित हो रहा है। इन बूढ़े पाञ्चालराज द्रुपद को इनकी दुखी रानियां और पुत्रबधुऐं चिता में जलाकर इनकी प्रदक्षिणा करके जा रही हैं। चेदिराज महामना शूरवीर धृष्टकेतु को जो द्रोणाचार्य के हाथ से मारा गया है, उसकी रानियां अचेत सी होकर दाह संस्कार के लिये जा रही हैं। मधुसूदन! यह महाधनुर्धर वीर संग्राम में द्रोणाचार्य के अस्त्र-शस्त्रों का नाश करके नदी के वेग से कटे हुए वृक्ष के समान मरकर धराशायी हो गया। यह चेदिराज शूरवीर महारथी धृष्टकेतु सहस्रों शत्रुओं को मारकर मारा गया और रणशय्या पर सदा के लिये सो गया। हृषीकेष! सेना और बन्धुओं सहित मारे गये इस चेदिराज को पक्षी चोंच मार रहे हैं और उसकी स्त्रियां उसे चारों ओर से घेर कर बैठी हैं। दशार्हकुल की कन्या (श्रुतश्रवा) के पुत्र शिशुपाल का यह सत्यपराक्रमी वीर पुत्र रणभूमि में सो रहा है और इसे अंग में लेकर ये चेदिराज की सुन्दरी रानियां रो रही हैं। हृषीकेष! देखो तो सही, इस धृष्टकेतु के सुन्दर मुख और मनोहर कुण्डलों वाले पुत्र को द्रोणाचार्य ने समरांगण में अपने बाणों द्वारा मारकर उसके अनेक टुकड़े कर डाले हैं। मधुसूदन! रणभूमि में स्थित होकर शत्रुओं के साथ जूझने वाले अपने पिता का साथ इसने कभी नहीं छोड़ा था, आज युद्ध के बाद भी वह पिता को नहीं छोड़ सका है।

महाबाहो! इसी प्रकार मेरे पुत्र के पुत्र शत्रुवीरहन्ता लक्ष्मण ने भी अपने पिता दुर्योधन का अनुसरण किया है। माधव! जैसे ग्रीष्म ऋतु में हवा के वेग से दो खिले हुए शाल वृक्ष गिर गये हों, उसी प्रकार अवन्ति देश के दोनों वीर राजपुत्र विन्द और अनुविन्द धराशायी हो गये हैं, इन पर दृष्टिपात करो। इन दोनों ने सोने के कवच धारण किये हैं, बाण, खड्ग और धनुष लिये हैं तथा बैल के समान बड़ी-बड़ी आंखों वाले ये दोनों वीर चमकीले हार पहने हुए सो रहे हैं। श्रीकृष्ण! तुम्हारे साथ ही ये समस्त पाण्डव अवध्य जान पड़ते हैं जो कि द्रोण, भीष्म, वैकर्तन कर्ण, कृपाचार्य, दुर्योधन, द्रोणपुत्र अश्वत्थामा, सिंधुराज जयद्रथ, सोमदत्त, विकर्ण और शूरवीर कृतवर्मा के हाथ से जीवित बच गये हैं।[2] जो नरश्रेष्ठ अपने शस्त्र के वेग से देवताओं को भी नष्ट कर सकते थे, वे ही ये युद्ध में मार डाले गये हैं; यह काल का उलट-फेर तो देखो। माधव! निश्‍चय ही दैव के लिये कोई भी कार्य अधिक कठिन नहीं है; क्योंकि उसने क्षत्रियों द्वारा ही इन शूरवीर क्षत्रिय शिरोमणियों का संहार कर डाला है। श्रीकृष्ण मेरे वेगशाली पुत्र तो उसी दिन मारे डाले गये, जबकि तुम अपूर्ण मनोरथ होकर पुनः उपप्लव्य को लौट गये थे। मुझे तो शान्तनुनन्दन भीष्म तथा ज्ञानी विदुर ने उसी दिन कह दिया था कि अब तुम अपने पुत्रों पर स्नेह न करो। जनार्दन! उन दोनों की यह दृष्टि मिथ्या नहीं हो सकती थी; अतः थोड़े ही समय में मेरे सारे पुत्र युद्ध की आग में जल कर भस्म हो गये।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 25 श्लोक 1-17
  2. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 25 श्लोक 18-31
  3. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 25 श्लोक 32-50

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