भीष्म और द्रोण को देखकर गांधारी का विलाप

महाभारत स्त्री पर्व में स्त्रीविलाप पर्व के अंतर्गत 23वें अध्याय में शल्य, भगदत्त, भीष्म और द्रोण को देखकर गांधारी के विलाप का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

शल्य और भगदत्त को देखकर गांधारी का विलाप

गान्धारी बोलीं- तात! देखो, ये नकुल के सगे मामा शल्य मरे पड़े है। इन्हें धर्म के ज्ञाता धर्मराज युधिष्ठिर ने युद्ध में मारा है। पुरुषोत्तम! जो सदा और सर्वत्र तुम्हारे साथ होड़ लगाये रहते थे, वे ही ये महाबली मद्रराज शल्य यहाँ मारे जाकर चिर निद्रा में सो रहे हैं। तात! ये वे ही शल्य हैं, जिन्होंने युद्ध में सूतपुत्र कर्ण के रथ की बागडोर सँभालते समय पाण्डवों की विजय के लिये उसके तेज और उत्साह को नष्ट किया था। अहो! धिक्कार है। देखो न, शल्य के पूर्ण चन्द्रमा की भाँति दर्शनीय तथा कमलदल सदृश नेत्रों वाले व्रणरहित मुख को कौओं ने कुछ-कुछ काट दिया है। श्रीकृष्ण! सुवर्ण के समान कान्तिमान शल्य के मुख से तपाये हुए सोने के समान कान्तिवाली जीभ बाहर निकल आयी है और पक्षी उसे नोच-नोच कर खा रहे हैं। युधिष्ठिर के द्वारा मारे गये तथा युद्ध में शोभा पाने वाले मद्रराज शल्य को ये कुलांगनाएँ चारों ओर से घेर कर बैठी हैं और रो रही हैं। अत्यन्त महीन वस्त्र पहने हुए ये क्षत्राणियाँ क्षत्रिय शिरोमणि नरश्रेष्ठ मद्रराज के पास आकर कैसा करूण क्रन्दन कर रही हैं। रणभूमि गिरे हुए राजा शल्य को उनकी स्त्रियाँ उसी तरह सब ओर से घेरे हुए हैं, जैसे एक बार की ब्याही हुई हथिनियाँ कीचड़ में फँसे हुए गजराज को घेर कर खड़ी हों। वृष्णिनन्दन! देखो, ये दूसरों को शरण देने बाले शूरवीर शल्य बाणों से छिन्न-भिन्न होकर वीर शय्या पर सो रहे हैं।

ये पर्वतीय, तेजस्वी एवं प्रतापी राजा भगदत्त हाथ में हाथी का अंकुष लिये पृथ्वी पर सो रहे हैं इन्हें अर्जुन ने मार गिराया था। इन्हें हिंसक जीव-जन्तु खा रहे हैं। इनके सिर पर यह सोने की माला विराज रही है, जो केषों की सोभा बढ़ाती-सी जान पड़ती है। जैसे वृत्रासुर के साथ इन्द्र का अत्यन्त भयंकर संग्राम हुआ था, उसी प्रकार इन भगदत्त के साथ कुन्ती कुमार अर्जुन का अत्यन्त दारुण एवं रोमांचकारी युद्ध हुआ था। उन महाबाहु ने कुन्तीकुमार धनंजय के साथ युद्ध करके उन्हे संशय में डाल दिया था; परंतु अंत में ये उन कुन्तीकुमार के हाथ से ही मारे गये।

भीष्म और द्रोण को देखकर गांधारी का विलाप

संसार में शौर्य और बल में जिनकी समानता करने वाला दूसरा कोई नहीं है, वे ही ये युद्ध में भयंकर कर्म करने वाले भीष्म जी घायल हो बाणशय्या पर सो रहे हैं। श्रीकृष्ण! देखो, ये सूर्य के समान तेजस्वी शान्तनुनन्दन भीष्म कैसे सो रहे हैं, ऐसा जान पड़ता है, मानो प्रलयकाल में काल प्रेरित हो सूर्यदेव आकाश से भूमि पर गिर पड़े हैं। केशव! जैसे सूर्य सारे जगत को ताप देकर अस्ताचल को चले जाते हैं, उसी तरह ये पराक्रमी मानव सूर्य रणभूमि में अपने शस्त्रों के प्रताप से शत्रुओं को संतप्त करके अस्त हो रहे हैं। जो ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी रहकर कभी मर्यादा से च्युत नहीं हुए हैं, उन भीष्म को शूरसेवित वीरोचित शयन बाणश्य्या पर सोते हुए देख लो। जैसे भगवान स्कन्द सरकण्डों के समूह पर सोये थे, उसी प्रकार ये भीष्म जी कर्णी, नालीक और नाराच आदि बाणों की उत्तम शय्या बिछाकर उसी का आश्रय ले सो रहे हैं।[1] इन गंगानन्दन भीष्म ने रूई भरा हुआ तकिया नहीं लिया है। इन्होंने तो गाण्डीवधरी अर्जुन के दिये हुए तीन बाणों द्वारा निर्मित श्रेष्ठ तकिये को ही स्वीकार किया है। माधव! पिता की आज्ञा का पालन करते हुए महायशस्वी नैष्ठिक ब्रह्मचारी ये शांतनुनन्दन भीष्म जिनकी युद्ध में कहीं तुलना नहीं है, यहाँ सो रहे हैं। तात! ये धर्मात्मा और सर्वज्ञ हैं परलोक और इहलोक सम्बन्धी ज्ञान द्वारा सभी आध्यामिक प्रश्नों का निर्णय करने में समर्थ हैं तथा मनुष्य होने पर भी देवता के तुल्य हैं; इन्होंने अभी तक अपने प्राण धारण कर रखे हैं। जब ये शान्तनुनन्दन भीष्म भी आज शत्रुओं के बाणों से मारे जाकर सो रहे हैं तो यही कहना पड़ता है कि 'युद्ध में न कोई कुशल है, न कोई विद्वान है और न पराक्रमी ही है।' पाण्डवों के पूछने पर इन धर्मज्ञ एवं सत्यवादी शूरवीर ने स्वयं ही अपनी मृत्यु का उपाय बता दिया था। जिन्होंने नष्ट हुए कुरुवंश का पुनः उद्धार किया था, वे ही परम बुद्धिमान भीष्म इन कौरवों के साथ परास्त हो गये। माधव! इन देवतुल्य नरश्रेष्ठ देवव्रत के स्वर्गलोक में चले जाने पर अब कौरव किसके पास जाकर धर्म विषयक प्रश्न करेंगे।[2]

जो अर्जुन के शिक्षक, सात्यकि के आचार्य तथा कौरवों के श्रेष्ठ गुरु थे, वे द्रोणाचार्य रणभूमि में गिरे हुए हैं, उन्हें भी देख लो। माधव! जैसे देवराज इन्द्र अथवा महापराक्रमी परशुराम जी चार प्रकार की अस्त्रविद्या को जानते हैं, उसी प्रकार द्रोणाचार्य भी जानते थे। जिनके के प्रसाद से पाण्डुनन्दन अर्जुन ने दुष्कर कर्म किया है, वे ही आचार्य यहाँ मरे पड़े हैं। उन अस्त्रों ने इनकी रक्षा नहीं की। जिनको आगे रखकर कौरव पाण्डवों को ललकारा करते थे, वे ही शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य शस्त्रों से क्षत-विक्षत हो गये हैं। शत्रुओं की सेना को दग्ध करते समय जिनकी गति अग्नि के समान होती थी, वे ही बुझी हुई लपटों वाली आग के समान मरकर पृथ्वी पर पड़े हैं। माधव! युद्ध में मारे जाने पर भी द्रोणाचार्य के धनुष के साथ जुड़ी हुई मुट्ठी ढीली नहीं हुई है। दस्ताना भी ज्यों-का-त्यों दिखाई देता है, मानो वह जीवित पुरुष के हाथों हो। केशव! जैसे पूर्वकाल से ही प्रजापति ब्रह्मा से वेद कभी अलग नहीं हुए, उसी प्रकार जिन शूरवीर द्रोण से चारों वेद और सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्र कभी दूर नहीं हुए, उन्हीं के बन्दीजनों द्वारा वन्दित इन दोनों सुन्दर एवं वन्दनीय चरणारविन्दों को जिनकी सैकड़ों शिष्य पूजा कर चुके हैं, गीदड़ घसीट रहे हैं।

मधुसूदन! द्रुपदपुत्र के द्वारा मारे गये द्रोणाचार्य के पास उनकी पत्नी कृपी बड़े दीनभाव से बैठी है। दुख से उसकी चेतना लुप्त सी हो गयी है। देखो, कृपी केष खोले नीचे मूँह किये रोती हुई अपने मारे गये पति शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ द्रोणाचार्य की उपासना पर रही है। केशव! धृष्टद्युम्न ने अपने बाणों से जिन आचार्य द्रोण का कवच छिन्न-भिन्न कर दिया है, उन्हीं के पास युद्धस्थल में वह जटाधारिणी ब्रह्मचारिणी कृपी वैठी हुई है। शोक से दीन और आतुर हुई यशस्वनी सुकुमारी कृपी समर में मारे गये पति देव का प्रेत कर्म करने की चेष्टा कर रही है।[2] विधिपूर्वक अग्नि की स्थापना करके चिता को सब ओर से प्रज्वलित कर दिया गया है और उस पर द्रोणाचार्य के शरीर को रखकर सामगान करने वाले ब्राह्मण त्रिवेद साम का गान करते हैं। माधव! इन जटाधारी ब्रह्मचारियों ने धनुष, शक्ति, रथ की बैठक और नाना प्रकार बाण तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं से उस चिता का निमार्ण किया। वे उसी महान तेजस्वी द्रोण को जलाना चाहते थे; इसलिये द्रोण को चिता पर रखकर वे वेदमंत्र पढ़ते और रोते हैं, कुछ लोग अन्त समय में उपयोगी त्रिविध सामों का गान करते हैं। चिता की अग्नि में अग्निहोत्र सहित द्रोणाचार्य को रखकर उनकी आहुति दे उन्हीं के शिष्य द्विजातिगण कृपी को आगे और चिता को दायें करके गंगा जी के तट की ओर जा रहे हैं।[3]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 23 श्लोक 19-37
  3. महाभारत स्त्री पर्व अध्याय 23 श्लोक 38-42

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