भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 947

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

श्रीरासलीलारहस्य

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अथवा यों समझो-

“योगमायामुपाश्रितः भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे-योगाय अघटित-घटनाय या माया इति योगमाया तामुपाश्रितः।”

अर्थात जो माया अघटितघटना-पटीयसी है, उसका आश्रय लेकर भगवान ने रमण करने की इच्छा की। यहाँ भगवान को अपना ऐश्वर्य छिपाना था, क्योंकि यह मधुर लीला है, अतः इसमें ऐश्वर्यभाव रस का विद्यातक है। इसमें प्राकृतांश ही अधिक उपयुक्त है। इसी से भगवान की जिन लीलाओं में प्राकृतांश विशेष है उन्हीं का महत्त्व भी अधिक है, क्योंकि प्राकृत व्यापारों में व्यासक्त प्राणियों को आकर्षित करने में प्राकृतभाव अधिक उपयोगी है।

अतः ‘योगमायामुपाश्रितः-योगमायां उप सामीप्येन आश्रितः, न तु साक्षात्’- सामीप्यवश योगमाया का आश्रय लेकर, साक्षातरूप से नहीं, जिस प्रकार स्वाभाविक होने के कारण सूर्य भगवान अपनी किरणों का आश्रय लेते हैं। उन्हें किरणें धारण नहीं करनी पड़तीं, बल्कि जहाँ वे रहते हैं वहाँ उनकी किरणें भी रहती ही हैं, इसी प्रकार भगवान की योगमाया भी उनके साथ रहती ही हैं। अतः अघटनघटन में समर्थ जो योगमाया, उसका सर्वथा समाश्रयण न करके भगवान ने प्राकृतवत लीलाएँ कीं, जिससे प्राकृत प्राणियों का विशेष आकर्षण हो सके।

इससे सिद्ध हुआ कि भगवान की योगमाया सर्वदा उनके साथ रहती है, इसलिये हठात् अपना काम कर देती है। जब मिट्टी खाने के उपरान्त भगवान ने श्रीयशोदा जी से मुख देखने को कहा तो उन्होंने यह नहीं समझा कि मैया सचमुच मेरा मुख देखेगी। वे यही समझते थे कि ऐसा कहने से मुझे निर्दोष समझकर वह छोड़ देगी। परन्तु जब उसने कहा ‘दिखला’, तो उनका मुख फैल गया।[1] भगवान ने मुख फैलाया नहीं बल्कि जिस प्रकार सूर्य की किरणों से कमल खिल जाता है उसी प्रकार माता के कोपरूप सूर्य का ताप पाकर भगवान का मुखकमल खुल गया। उस समय योगमाया ने देखा कि मुख मे मिट्टी देखकर माता हमारे प्रभु को मारेगी; इसी से उसने उनके मुख में सारा ब्रह्माण्ड दिखा दिया। इसी प्रकार इस लीला में भी योगमाया कई ऐश्वर्यभाव दिखायेगी।

अथवा भगवान ने उन रात्रियों को देखकर ‘योगमायामुपाश्रितः-योगाय संश्लेषाय मायः शब्दों यस्यां तां योगमायां वंशीम्- व्रजांगनाओं के योगसंश्लेष के लिये माय[2] (शब्द) जिसमें रहते हैं उस वंशी का नाम योगमाया है; उसका आश्रय करके भगवान ने व्रजांगनाओं को बुलाकर रमण की इच्छा की।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वहाँ अकर्मक ‘व्यादत्त’ क्रिया का प्रयोग किया गया है। (देखिए भाग. 10।8।36)
  2. मीयते वक्ता अनेन इति मायः शब्दः।

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