भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यह उचित भी है, क्योंकि जिस प्रकार गिरिराज का आश्रय लेकर भगवान ने इन्द्र के दर्प का दमन किया था उसी प्रकार कन्दर्पदर्प-दमन इसके द्वारा होगा। वंशी क्या है? यह महारुद्र है और कामदेव के दर्प का दमन महारुद्र ही कर सकते हैं। दूसरी बात यह है कि अपने संसर्ग द्वारा स्वस्वरूप बना लेने पर ही किसी के साथ रमण हो सकता है। वस्तुतः भगवद्व्यतिरिक्त तो कोई पदार्थ है नहीं। भगवद्रूप में ही भिन्नता की प्रतीति हुआ करती है; और भगवत्सम्बन्ध से ही उसकी निवृत्ति होकर भगवद्रूपता की प्रतीति होती है। वह सम्बन्ध क्या है? व्यवधान की निवृत्ति। व्यवधान की निवृत्ति होते ही भगवान से अभेद हो सकता है। अतः भगवान ने वंशीध्वनि द्वारा अपनी अधरसुधा का संचार करके समस्त वृन्दारण्यं और तद्वर्ती गुल्म, लता एवं गोपांगनादि को स्वस्वरूप बना दिया। इसी से ‘योगाय भगवत्संश्लेषाय मायः शब्दो यस्यां तां वंशीं उपाश्रितः’- योग अर्थात भगवत्संश्लेष के लिये जिसमें माय अर्थात शब्द है उस वंशी का आश्रय लेकर भगवान ने रमण की इच्छा की। मानो उस वंशी की उपासना करके ही भगवान व्रजांगनाओं के मनों को आकर्षित करने में समर्थ हुए। अपि शब्द का आशय यही है कि यद्यपि था तो अनुचित, तथापि भगवान के सम्बन्ध मात्र से उचित ही हो गया, क्योंकि साधारणतया सभी कन्याओं का प्राथमिक सम्बन्ध गंधर्व आदि के साथ होता है। चन्द्रमा तो वैसे सभी के मन के अधिष्ठाता हैं। मन की आवश्यकता सभी सम्भोगों में है और मन को सर्वत्र हो अपने अधिष्ठातृ-देव चन्द्रमा की अपेक्षा है। अतः चन्द्रमा सर्वभोक्त हैं। परन्तु व्यष्टि अभिमान ही पुण्यपाप का मूल है, चन्द्रमा सभी के मन के अधिष्ठाता हैं, अतः उनमें व्यष्टि अभिमान नहीं है। इसी कारण उन्हें पुण्यपाप का संसर्ग नहीं है। जैसे चन्द्रमा सबके मन का अधिष्ठाता है, वैसे ही भगवान सभी के अन्तरात्मा हैं। जैसे सम्भोगों में मन की अपेक्षा है उससे भी अधिक सभी सम्भोगों में अन्तरात्मा की अपेक्षा है, क्योंकि अनुकूल-प्रतिकूल शब्दस्पर्शादि विषय तथा सुख-दुःखादि का साक्षात्कार अन्तरात्मा के ही अधीन है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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