भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
भगवान की यह लीला औषधिरूपा होगी। जिस प्रकार अज्ञानी पुरुषों के लिये यह श्रोत्रमनोभिरामा है वैसे ही मुमुक्षुओं के लिये यह भवौषधिरूपा है। अतः- “ताः मुमुक्षुरूपाः प्रजाः वीक्ष्य, ताश्च श्रुतीः आहूय, ताभिः सह रन्तुं मनश्चक्रे”- उस मुमुक्षुरूपा प्रजा को देखकर और उन श्रुतियों का भी आह्वान कर उनके साथ रमण करने की इच्छा की। अर्थात मुमुक्षुओं को संसार से निर्विण्ण देखकर भगवान ने रमण करने की इच्छा की। मुमुक्षु लोग संसार से निर्विण्ण क्यों है? इसका हेतु यह है- वे विशुद्धान्तःकरण हैं, इसलिये विवेक सम्पन्न हैं और विवेकी के लिये सब कुछ दुःखरूप ही है- ‘दुःखमेव सर्वं विवेकिनाम्’-उनके लिये संसार के सारे सुख भाले और बर्छियों के समान हो जात हैं। उनके उद्धार का उपाय क्या है? यही कि श्रुतियों का परम तात्पर्य एकमात्र परब्रह्म में ही निश्चित हो। किन्तु पहले यह होता नहीं, अतः भगवान ने उनका आह्वान कर अपने में उनका तात्पर्य दृढ़ किया। यहाँ जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने व्रजांगनाओं का आवाहन किया था उसी प्रकार व्यासरूप से उन्होंने ब्रह्मसूत्ररूप वेणुनाद द्वारा समस्त श्रुतियों का आवाहन करके उनका परम तात्पर्य परब्रह्म में निश्चित किया है। “गिरा अर्थ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न।” यहाँ ‘अर्थ’ तो पूर्ण परब्रह्म परमात्मा है और ‘शब्द’ ये श्रुतियाँ हैं। अतः श्रुतियाँ तरंग हैं और ब्रह्म समुद्र है। इसी प्रकार गोपांगनाएँ तरंग हैं और भगवान श्रीकृष्ण समुद्र हैं। उनका परस्पर तादात्म्य-सम्बन्ध है। उन श्रुतियों का आवाहन कर, अर्थात अपने में उनका तात्पर्य निश्चय कर, भगवान ने रमण करने की इच्छा की। यहाँ भावुकों की दृष्टि से एक और ही अर्थ होता- ‘योगमायामुपाश्रितः-यः ‘अगमायाम् उपाश्रितः’-‘न गच्छतीति अगा, अगा चासौ मा अगमा’। अर्थात नित्यश्लिष्टा वृषभानुनन्दिनी। वह कौन है?- ‘यामुपाश्रितः भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’, अर्थात जिसका आश्रय लेकर भगवान ने भी रमण करने की इच्छा की। क्यों इच्छा की? शरदोत्फुल्लमल्लिका रात्रियों को देखकर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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