भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
यह “त्व” पद लक्ष्यार्थ स्वात्मा ही सर्वान्तरंग है। यहाँ ही परम-सान्निध्य का भी पर्यवसान होता है, क्योंकि अपने से परमसन्निहित अपना अन्तरात्मा ही हो सकता है। अन्य पदार्थों में कुछ न कुछ देश, वस्तु आदि का व्यवधान रहने से पूर्ण सान्निध्य नहीं बन सकता। देह, इन्द्रियादि की अपेक्षा कुछ सन्निहित (समीप होने वाले) मन, बुद्धि, अहंकार, ज्ञान, अज्ञान, सुखादि भी अप्रकाशमान होकर नहीं रहते। किन्तु ये जब कभी रहते हैं तब स्वप्रकाश साक्षी के संसर्ग से भासमान होकर ही रहते हैं। सुख, दुःखादि हों और भासमान न हों, ऐसा कदापि नहीं होता, तब फिर अत्यन्त सन्निहित स्वान्तरातम अप्रकाशमान हो यह कैसे हो सकता है? “जो सर्वद्रष्टा सर्वभासक होता है, वह सदा सर्वदा अन्य प्रकाश से निपेक्ष स्वतःप्रकाशमान होता है” इसी अभिप्राय से श्रुति ने कहा है कि जो सबको जानने वाला है, उसे किसने जाने- “विज्ञातारमरे! केन विजानीयात्”? यदि भगवान ही प्रत्यगात्मरूप से भी विराजमान हैं, तब तो उनमें उक्त श्रुति के अनुसार स्वप्रकाशता बन सकती है। जो व्यवधान-रहित, अन्य प्रकाश-निरपेक्ष, स्वतः साक्षात अपरोश है वही ब्रह्म है- “यत्साक्षादपरोक्षाद्ब्रह्म”। अन्यथा कोई भी लक्षों जन्म की अनन्त तपस्याओं से भी अति दुर्गम परमपरोक्ष भगगवान में सर्वविज्ञातृता, अन्य निरपेक्ष परम प्रकाशमानता कैसे सिद्ध कर सकता है? क्या कोई अत्यन्त परोक्ष तटस्थ परमेश्वर को साक्षात अपरोक्ष कहने का साहक कर सकता है? यदि वह परमेश्वर सर्वविज्ञातारूप साक्षात अपरोक्ष हो, तो उसके विषय में अनेक प्रकार की अनुपपत्तियाँ एवं विप्रतिपत्तियाँ कैसे हो सकती हैं? जब इन्द्रिय, मन आदि द्वारा पारम्परीण अपरोक्ष घटादि में भी संशय-विपर्ययादि नहीं होते, तब साक्षात अपरोक्ष परमात्मा में संशयादि कैसे हो सकते हैं? फिर यदि वह साक्षात अपरोक्ष है, तो उसके बोध के लिये श्रवण-मननादि उपायोपदेश भी व्यर्थ हैं। क्योंकि अनुभव-विरोध स्पष्ट ही है। अतः यदि भगवान में उक्त श्रुतियों के अनुसार साक्षादपरोक्षत्वरूप स्वप्रकाशता आदि का समर्थन करना है, तो अनिच्छयापि कहना पड़ेगा कि भगवान ही सर्वप्रकाशक, सर्वान्तरात्मा, सर्वसाक्षी, प्रत्यगात्मा रूप से भी विराजमान हैं। उसी रूप से उनमें साक्षात अपरोक्षता, स्वप्रकाशरूपता उत्पन्न होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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