भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 773

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

वेदान्त-रससार

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इसी परम-सन्निहित स्वप्रकाश आत्मा में अध्यारोपित अपूर्णता अपरिच्छिन्नता आदि की निवृत्ति के लिये श्रवणादि भी सार्थक होते हैं। परोक्ष ‘तत्पदार्थ’ असन्निहित एवं परोक्ष होने के कारण प्रेमास्पद भी नहीं होता, क्योंकि सन्निहित एवं अपरोक्ष में ही निरतिशय प्रेम हो सकता है। इसलिये निरुपाधिक परमप्रेमास्पद आत्मा ही है। अत: वही परमआनन्दरूप भी है। परोक्ष परमात्मा में स्वाभाविक निरुपाधिक निरतिशय प्रेम अत्यन्त अप्रसिद्ध एवं अनुभव से विरुद्ध है। परमात्मा में प्रेम और भक्ति की अभ्यर्थना की जाती है। “या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी। त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु।” “हे नाथ! जसे अविवेकियों की विषयों में स्वाभाविक प्रीति होती है, वैसी ही आपको स्मरण करते हुए मेरे हृदय में आपमें अटल प्रीति हो।” अत: भगवती श्रुति ने भी प्रत्यगात्मा को ही सर्वाधिक प्रेम का विषय बतलाया है। देवताओं में भी प्रेम आत्मकल्याण के लिये ही किया जाता है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। परोक्ष तत्त्व प्रेम का आस्पद नहीं है, वह आनन्द या परमानन्द रूप कैसे हो सकता है? अतः जैसे स्वप्रकाशता परोक्ष परमात्मा में असंगत है, वैसे ही परप्रेमास्पदता और परमानन्दरूपता भी असंगत है। इन उपर्युक्त हेतुओं से कहना पड़ता है कि वेदान्तवेद्य परात्पर पूर्णतम भगवान सर्वान्तरतम सर्वप्रत्यगात्मा हैं। अत: निरतिशय निरुपाधिक परप्रेम के आस्पद एवं परमानन्दरूप हैं। आनन्द चैतन्य परमसत्य भगवान ही सर्वप्रत्यागात्मरूप से स्थित हैं। अचिन्त्यअनन्त कल्याण-गुणगणनिलय भगवान ही सच्चिदानन्द रूप हैं।

समस्त गुणगणों का पर्यवसान आनन्द में ही होता है, क्योंकि सर्वगुणों का उपयोग अनर्थ-निबर्हण, सौख्यातिशय एवं महत्त्वातिशय के आधान में ही होता है। निरतिशय-सुखस्वरूप एवं निरतिशय महान भगवान में सर्वगुणों की समाप्ति होती है।

कुछ लोग कहते हैं कि सौन्दर्य-माधुर्यदि गुणसम्पन्न सगुण साकार भगवान में ही आनन्द है। अदृश्य अग्राह्य अचिन्त्य निराकार निर्विकार परमात्मा पाषाणरूप है। उसमें सुख का लेश भी नहीं है। परन्तु यदि यहाँ विवेचन किया जाय तो यही विदित होता है जहाँ कहीं भी किसी प्रकार के सुख का स्वरूप होता है, वह सभी सुख निराकार ही है। कहीं भी सुख का स्वरूप नील, पीत, हरित या मूर्त नहीं देखा जाता है। चिरकाल के विप्रयोग से सन्तप्त कामुक अपनी प्रियतमा कान्ता के परिरम्भण से आनन्द का अनुभव करता है, उत्कट पिपासा एवं बुभुक्षा से परिपीड़ित पुरुष को शीतल, मधुर, सुगन्धित जल एवं सौगन्ध्य, सौरस्य, माधुर्यसम्पन्न पक्वान्न के मिलने पर आनन्द होता है। यहाँ विवेचन करना चाहिये कि यह जो आनन्द है उसका क्या रूप है। नील या पीत, लघु या गुरु, बृहत्परिमाण परिमित या मध्यम परिमाण परिमित है? यहाँ यह कहना न होगा कि शीतल सुमधुर जल, पक्वान्न या कामिनी स्वयं आनन्दरूप नहीं हैं, क्योंकि बुभुक्षा, पिपासा तथा कामव्यथा बिना कामिनी आदि में आनन्द का गन्ध भी उपलब्ध नहीं होता। वह आनन्द सर्वत्र ही अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अगन्ध, अदृश्य तथा निराकार ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
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4. मानसी-आराधना 20
5. सगुणोपासना में सरलता 24
6. संकल्पबल 28
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8. शिव से शिक्षा 60
9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
14. गजेन्द्र-मुक्ति 182
15. शक्ति का स्वरूप 188
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18. गणपति तत्त्व 235
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21. भगवदवतार का प्रयोजन 275
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35. करुणालहरी 408
36. श्रीरामजन्म-रहस्य 411
37. श्री रामभद्र का ध्यान 415
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40. विभीषण-शरणागति 450
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42. साक्षान्मन्मथमन्मथः 486
43. श्रीवृन्दावन में वर्षा और शरत 507
44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
48. वेदान्त-रससार 730
49. निर्गुण या सगुण? 781
50. व्रज-भूमि 797
51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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