भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
अधिष्ठान-स्वरूप परमात्मा के विज्ञान में जब प्रपंच-बुद्धि बाधित हो जाती है, तब उपादानता निमित्तता भी परमात्मा में बाधित हो जाती है। ऐसी स्थिति में कार्य-कारणातीत शुद्ध रूप की स्थिति होती है। प्रपंच के प्रतीति काल में ही तमःप्रधान प्रकृति-युक्त सच्चिदानन्द में उपादानता और सत्त्वप्रधान प्रकृतियुक्त सच्चिदानन्द निमित्तता उत्पन्न होती है। तम आवरक है, अत: उससे सावरण सच्चिदानंद में जड़ प्रपंच के अनुरूप जड़ता भासित होती है। प्रकाशात्मक सत्त्व के योग से निरावरण स्वप्रकाशात्मक सच्चिदानन्द कुलालादि निमित्त कारण के अनुरूप सर्वविज्ञान होता है। दोनों ही प्रकार की प्रकृति मूल प्रकृति के अन्तर्गत है, और मूल प्रकृति भी ब्रह्म में परिकल्पित है। अधिष्ठान के बोध से प्रकृति तत्कार्यात्मक प्रपंच का बोध हो जाता है। भोग्यवर्ग का बोध, स्वरूप से ही होता है। परन्तु भोक्तृवर्ग का बोध उपाधि तत्संसर्ग के बोधाभिप्राय से ही होता है। इसी अभिप्राय से “सर्व खल्विदं ब्रह्म” इत्यादि स्थलों में “योऽयं स्थाणुः पुमानेषः” की तरह बोध-सामानाधिकरण्य से सर्व पदार्थ का ब्रह्म के साथ अभेद बोधन किया जाता है। और “तत्त्वमसि” इत्यादि स्थलों में “सोऽयं देवदत्तः” की तरह भागत्याग लक्षणा के द्वारा मुख्य सामानाधिकरण्य से ‘त्वं’ पदार्थ जीव का ‘तत्’ पदार्थ ब्रह्म के साथ अभेद बोधित होता है। ‘त्व’ पदार्थ जीव के साथ अभेद बिना ‘तत्’ पदार्थ परमात्मा में निरितिशय, निरूपाधक परप्रेमास्पदता, परमानन्दरूपता, स्वप्रकाशता आदि ही नहीं सिद्ध हो सकती, क्योंकि जो पदार्थ अत्यन्त सन्निहित है वही स्वतः अपरोक्ष अर्थात् अन्य निरपेक्ष स्वप्रकाश होता है, और वही परम अन्तरंग एवं अत्यन्त परिचित स्वप्रकाश होने के कारण निरतिशय प्रेम का आस्पद होता है। निरतिशय प्रेमास्पद ही परमानन्दरूप हुआ करता है। यदि तत्पदार्थ परमात्मा जीव से भिन्न एवं तटस्थ हो तो उसमें उपर्युक्त सब बातें नहीं बन सकती। पृथ्वी, आकाशादि बाह्य पदार्थ एवं देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, अहंकारादि आन्तर समस्त दृश्य पदार्थों का द्रष्टा सर्वप्रकाशक ‘त्वं’ पद लक्ष्यार्थ साक्षी ही होता है। अहंकार, बुद्धि आदि सभी उसकी अपेक्षा असन्निहित, बहिरंग, परतःप्रकाश, सातिशय, सोपाधिक प्रेम के आस्पद ही हैं। ‘त्व’ पद लक्ष्यार्थ सर्वद्रष्टा साक्षी ही सबसे अन्तरंग सन्निहित है। जैसे अन्यान्य पदार्थ सूर्यादि प्रकाश सम्बन्ध से प्रकाशमान होते हैं, परन्तु सूर्यादि स्वतः प्रकाशमान होते हैं, वैसे ही बुद्धि अहंकारादि अन्यान्य दृश्य-पदार्थ इस साक्षी के सम्बन्ध से प्रकाशमान होते हैं, और यह साक्षी स्वतःप्रकाश होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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